Friday, April 29, 2011

मेरी भीड़

आँख खुली,
बाहर देखा-
भीड़ थी,
बहुत सारे लोगों की भीड़,
नायक, महानायक, मसीहों से
दिग्दर्शित, संचालित और रक्षित भीड़.

देवता, ईश्वर और ख़ुदा.
किसी के सौ हाथ,
किसी की उंगली पर पर्वत,
सब के सब प्रभावशाली,
महान आभामंडल युक्त.


हाथों मे मस्जिदों, गिरजों, मंदिरों,
चाबियाँ थामे,
आशीर्वाद देते-
पुजारी, पादरी और मौलवी-
मंत्र फूँकते, आहुति देते,
मीनारों पर चिल्लाते.
उनके पीछे,
कुंभ नहाती
घंट बजाती
तिलक लगाती भीड़,
टोपियाँ संभालती भीड़.

भीड़ मे खुसुर पुसुर करते,
मेरी जाति के लोग,
पड़ोसी पर संदेह करते पड़ोसी,
शुद्ध, बड़े, संपन्न.
छोटे, दलित, कुचले हुए,
धर्म और मर्यादा को कस के पकड़े लोग.
गौरांग और आर्य भीड़,
श्याम चर्म और मोटी नासिका
वालों की भीड़.

मुझे भी जल्दी से,
अपनी भीड़ चुन लेनी है,
मेरी मदद करो-
मुझे मेरी भीड़ तक पहुँचा दो,
बिना भीड़ के मैं-
मर जाऊँगा.
पहुँचा दो मेरी बाँह
पकड़ के खींच के
उन लोगों की भीड़ मे:
जो भीड़ को नही देखते,
भीड़ से नही सहम जाते,
उसमे बहते नहीं-
अप्रभावित उसे काट कर
आगे निकल जाते हैं-
अकेले.

शिशिर सोमवंशी