Tuesday, August 16, 2011

तुम्हारी आखों मे मेरे रंग


मैं वही तस्वीर हूँ,
जिसे बनाते बनाते,
तुम्हारा मन उचट गया.
रंग वहीं आस पास थे,
तुन्हे दिखने बंद हो गये.
कोई रंज़ नहीं;
जो मैं पूरी न हुई.
जो पूरी ही हो जाए-
वो ज़िंदगी कहाँ?

ये जो भी है,
झूठी-सच्ची, कच्ची-पक्की..
और अधूरी सी सही-
तुम्हारी है.

एक बात कहूँ तुमसे?
कुछ देर को रंगों,
की तलाश को भूल,
कूची को किनारे कर,
अपने हाथों से:
बना दो मुझको.

सजाओ इतना ही-
कि सह सकूँ मैं भी;
जो यह बदरंग है;
धूमिल सा है-
मेरा अपना एक,
रंग ही तो है
चीज़ अपनी है-
मुझे प्यारी है.

-शिशिर सोमवंशी