Monday, August 11, 2014

मौसमों की करवट

बिल्कुल वैसे ही जब
मौसमों की करवट पर
पेड़ों के पत्तों का रंग
बदलता है.
ठीक वैसे ही
हवा बहती है अपनापे से
मुझको छूकर-
याद आता है कुछ
तस्वीर सा आँखों में
उभर आता है.

काम मौसमों का
और क्या है?
कभी तपना
तरसना और बरसना
कभी बेबाकी से-
सारी साज़िश तो
यादों को बचाने की है.

हर याद का चेहरा हो
ज़रूरी तो नहीं
और यह भी नहीं
होठों से कोई नाम
पुकारा जाए.

कभी जब मौसमों की
आहट पर,
पेड़ के पत्तों पे जो
नज़र जाए-
कोई अपना सा-
हवा का झोंका
तुमको छूकर अगर
गुज़र जाए.
किसी बीते हुए मौसम
की याद कर लेना-

और ज़्यादा तो कुछ
नही होता-
दिल के भीतर का
बिखरा सा-
बेतरतीब सा घर
थोड़ा सजता है
संवर जाता है.


-शिशिर सोमवंशी

Sunday, August 10, 2014

तम कितना घना होगा?


तम कितना घना होगा?
ये तुमने सुना होगा.
तम कितना घना है-
ये मैने सहा है.

सब ने जिसे परखा,

और सब ने जिसे जाना.
परतों की परत करके,
अच्छे से जो पहचाना-
मुझ ही से ना मिल पाया,
जो मुझ मे रहा है.
छल कितना बड़ा होगा,
ये तुमने कहा है,
छल कितना बड़ा है,
जो मैने जिया है.

एक स्वर है कुछ दबा सा,
कोई नाम मेरे जैसा,
कहते हैं जिसे अपने,
सकुचा के डरते डरते.
मैं सुन के बुरा मानूं,
या उन पे बिफर जाऊं.
भय कितना पला होगा,
ये तुमने कभी सोचा
भय कितना पला है-
जो मैने किया है.


शिशिर सोमवंशी

मेरे मन मे आज

सौ रूप लेना चाहता हूँ,
सौ रंग भरना चाहता हूँ,
एक बार के इस आचमन से-
तृप्त मैं ना हो सकूँगा.
जीवन अमय की निधि अतुल को,
भर भर के पीना चाहता हूँ.

हर प्रश्न को कर के किनारे,
अपनी निराशा को विजित कर,
अपने ही हाथों के सहारे-
कुछ पाप धोना चाहता हूँ,
कुछ पाप ढोना चाहता हूँ.
इस पाप-पुण्य से परे-
मैं आज होना चाहता हूँ.

शत्रु सा चाहे छले, चाहे चुभे.
या मित्र बन उर से लगे-
हर सत्य जीना चाहता हूँ.
जीवन अमिय की निधि अतुल को,
भर भर के पीना चाहता हूँ.

-शिशिर सोमवंशी

मैनें जी कर देखा है

मोहभंग से मोहभंग तक,
स्वपनों की जो माला है.
इस माला के मोती बनकर,
मैनें खुद को ढाला है.

पीड़ा के अविरल सम्मोहन,
संकोचों और संदेहों मे,
प्रश्नचिह्न और प्रतिवादों,
के मध्य सतत ही,
थोड़ा बहुत निकाला है.

यही समय बस यही घड़ी,
मुझसे हंस कर कहती है,
तुमने तो जी कर देखा है,
जीवन मद का प्याला है.


- शिशिर सोमवंशी

हथेली पर नयी रेखा

कोई नयी रेखा हथेली पर,
उभर आई है-
घबराता हूँ.
अनिश्चित 
अविदित
क्या है समय के
मन मे.

जो भी है
उसे नया मीत

मान लेते हैं.
यात्रा का साथी,
रहेगा साथ जब तक,
वो चाहे.
हमारे चाहने से,
क्या बीता है?

और हाथों पर ये
बीते बरस का निशान,
भी तो हो सकता है.
या फिर आने वाले
साल की दस्तक.
जिसमे निहित है
हम सब के लिए
थोड़ा थोड़ा सुख
बहुत सारा संतोष


शिशिर सोमवंशी

मेरे हिस्से की धूप

बिना संकोच,
निर्भय होकर 
माँगूंगा इसी पल से
बस आज से.



मेरे हिस्से की धूप,
नमी और हवा.
ये दिन भी बीत
जाएगा नही तो,
उमर की तरह
धीरे धीरे ऐसे.

मेरी कहानी,
जल्दी से पढ़ दी
हो किसी और ने
बेमन से जैसे.


- शिशिर सोमवंशी

जब होगी सुबह












जब होगी सुबह,
तुम रख लेना,
अपने हिस्से सारी सारी.

इस डूबती बोझिल,
सांझ को तुम,
मेरे नाम करो.
तुम जी लोगे...
मैं जी लूँगा.
तुम जीवन हो,
मैं जीवन हूँ....

कोने कोने जो,
बिखरा है,
साथ हमारे रहता है,
और काल सरित,
मे बहता है..

इस अमृत की बूँदें सारी,
तुम पी लेना,
मैं पी लूँगा.
तुम जीवन हो,
मैं जीवन हूँ
.

- शिशिर सोमवंशी

मेरे जीवन ना मैं चंदन










मेरे जीवन ना मैं चंदन

फिर भी घिस करके अपना तन

तेरे माथे तिलक लगाऊं

तू शीतल हो जाए-


रुक जाऊं, सुस्ताऊं

बात पुरानी याद करूँ

थोड़ा रो लूँ या मुस्काऊँ

ऐसा कोई पल हो पाए.


काया के इस 

मलिन रूप को,

सांझ उतरती हुई

धूप को,

रह रह कर सुलगाऊँ

संभव कोई छल

हो जाए.


-शिशिर सोमवंशी

बस एक बार

एक बार 
बस एक बार
मुझे उन आँखों मे
ठीक उसी तरह
दिखना है..

जैसे पहली बार
देखा था.

उतना भला मैं
कभी नही लगा.
और...
उतना साफ भी.

समय के प्रवाह ने
उन्मुक्त निश्चल
जल को बाँध ही
लिया अंतत:


स्मृतियाँ तो मुक्त हैं
विश्वास करो..
मैने इन्हें कुछ
नहीं बताया,
कुछ भी नहीं कहा.


-शिशिर सोमवंशी

अभी और जीने का मन है

मरुथल से शुष्क यथार्थ और 
प्लावित व्यावहारिकता 
के मध्य दम घोंटते 
नीरव एकाकीपन से....
थकी साँसों को जागृत और
जीवन से स्वत: किए 

पुराने अनुबंध को स्मृत कर-
मैं लौट आया हूँ
अपनी अकिंचन दुनिया मे-
सबके लिए- अपने लिए...
कि अभी और जीने का मन है।

अपेक्षा- अनापेक्षा,
प्रतिस्पर्धा और पश्चाताप
की धूल कस के फटक
अनुराग- विराग,
हर्ष और प्रलाप
को परे झटक
विगत की गणित को विस्मृत कर-
मैं लौट आया हूँ
अपनी अकिंचन दुनिया मे-
सबके लिए- अपने लिए....
कि अभी और जीने का मन है।


-शिशिर सोमवंशी (१ जनवरी २०१४)

Saturday, August 9, 2014

मैं यायावर

मैं बीते समय का यायावर,
बस राहों में सुख पाता हूँ.

स्मृतियों की धूल लिए
रुकने के सारे आमंत्रण-
स्थायित्व के अनुपम क्षण-

पुनर्मिलन के मधुरिम प्रण
आग्रह से ठुकराता हूँ.

मैं अपने ही सम्मोहन में
अपनी निजता के बंधन में
जीवन के अद्भुत मंदिर में
क्षय होती जाती काया के-
आदर से पुष्प चढ़ाता हूँ.

मैं बीते समय का यायावर,
बस राहों में सुख पाता हूँ.

-शिशिर सोमवंशी

मैं आराध्य नहीं

प्रिये मैं आराध्य नहीं 
अपनी समस्त दुर्बलताओं में 
सिरे से अंत तक उलझा हुआ- 
उन्हे समझता और स्वीकारता 
मनुज हूँ 

मन हूँ.

तुम भी तो समझो
कच्ची-पक्की मिट्टी की
मूर्ति हूँ-
जो जस तस बन गयी
उस आँच मे
जो भी जीवन की गति में
मेरे हिस्से पड़ी.
अपेक्षाओं की कसौटी
कसते कसते टूटा तो?
भन्गुर हूँ
अकिंचन हूँ.

ये कैसा प्रेम है?
जो सतत बदलाव की
प्रत्याशा मे जीवन के
पूर्व से ही रीते पात्र
को ही उलट देना चाहे?
कैसा प्रेम है?
जो हर घटना
हर गतिविधि पर
पहरे बिठाए और सहम जाए.

प्रियपात्र का
वर्जनाओं से सर्वथा मुक्त होना
दुष्कर है
और दुरूह है हर आशा का
अपेक्षित परिणाम.
संबंधो में-
हम सब सहते हैं,
बँधते हैं,
सुलगते हैं
और शांत भी होते हैं
मर्यादा कमजोर क्षणों मे
इनसे विलग होने के
प्रयास की है.

हाँ मेरे अपराध
दो पृष्ठ अधिक,
हाँ मेरा भटकाव,
कुछ मोड़ आगे तक.
मेरी.................छोड़ो-

मेरी मान्यताएँ, मेरे मूल्य
कहीं निजता और
कहीं सहजता.
मेरा व्यतीत और मेरा अतीत
मेरी श्रद्धा, समर्पण
और मौन समर्थन....
कितने सर्प लिपटे रहे
और कभी लगा ही नही
मैं चंदन हूँ.

दिल इतने बड़े क्यूँ हों?
कि उनमें ज्वार उठते रहें
साँसें उफन जाएँ
क्यूँ अनायास यूँ ही
और ज़रा सी बात पे
घुटती रहें कई रातों तक?
प्रेम? नही हूँ बस
साहचर्य के सुखों का उल्लास
दुखों का विषाद
नितांत सरल स्थितियों की
अप्रत्याशित परिनिति का
अनसुना स्पंदन हूँ.
क्या कम हूँ? 

-शिशिर सोमवंशी२३-०४-२०१४ सुबह के नौ बज गये इस प्रलाप में.