Friday, October 31, 2014

आसान तो कुछ भी नहीं

सच यही है कि
मैं बढ़ना चाहता हूँ
बढ़ूंगा नहीं........
उस स्पर्श से,
उसकी कोमलता से.
सीमित रहूँगा
तुम्हारे बालों की लट
की चंचलता और
सुगंध तक ही.

तुम कहोगी-
नही हो पाएगा,
ऐसा होता नही.
मुश्किल है
बहुत मुश्किल होगा.
मैं कहता हूँ-
आसान रहा क्या
मेरे लिए?
सब कुछ घटा
सब कुछ बीता
इतनी तेज़ी से
बिना कहे अकस्मात.

अधूरा अपरिचित मिलन
ओह...... वह
भरपूर बिछोह,
उस पर अब
मिलना इस तरह:
भागती उमर.....
डूबती शाम -घिरती रात
बिना कहे अकस्मात.

इन बेबस काँपते
हाथों मे रहा नही
ख़ुश होकर
कुछ भी-कोई भी
इस से पहले.
और आज  मिला -
ये अनछुआ स्पर्श.

तुम्हारे हाथ,
तुम्हारी उंगलियाँ,
सकुचाती सी
थमी हुई ठहरी
सुस्ताती हुई-
मेरे हाथों मे.
समय भी हारा
उसी एक पल
तुमसे..मुझसे.

सच है कि इस पल
मैं जो करना चाहता हूँ-
करूँगा नही...
इतना ही बस-
मिलने दूँगा अपने
प्रेम को
उन्ही हाथों मे.
उन्मुक्त बहने दूँगा
सोख लेने को
तुम्हारा हर कंपन
समा जाऊँगा वहीं
उस ठहरे हुए
अद्भुत पल मे.

ठीक उसी समय
तुम मुझे देखोगी
मेरी आखों मे-
उन्हे बंद पाओगी.
मैं वहाँ हूँगा कहाँ?

शायद तुम्हे भी
कहना है
ये जो हो रहा है
इसका होना-
मुश्किल था.

और मैं ..
मैं कहना चाहता हूँ
कहूँगा नहीं-
आसान तो कुछ भी
नहीं होता.
प्रेम तो कभी नही.


-शिशिर सोमवंशी

Tuesday, October 21, 2014

एक बार प्रेम को ........

तुमने  हर बार
दिया है-
रक्त के रंग को
वंश की परंपरा
और संबंधों के
स्वामित्व को.
एक बार प्रेम को
अवसर देकर देखो.
                          
अपने से बढ़कर
माना है-
स्थितियों की विषमता,
यथार्थ की अनिवार्यता
और निर्जीव किंतु प्रकट
स्थायित्व को
बस एक बार
प्रेम को सबसे उपर-
रख कर देखो.

एक बार
अपने हृदय की
कारा मे जन्मों से
बंदी मौन को भी
स्वर देकर देखो.
एक बार प्रेम को
अवसर देकर देखो.

प्रेम याचक नही
इस की अपेक्षा-
प्राप्ति, आलिंगन
और सानिध्य नही
प्रेम कहता है-
मुझे स्वीकृति दो
स्वयं मे
संपूर्ण हो जाओ.

इस काया, स्वरूप
और स्पर्श की
सीमाओं से
उबर कर देखो-
एक बार प्रेम को
अवसर देकर देखो.

ये नही कहता
कि  नामों के
आरंभ के अक्षर  के
युग्म बनो
और जताओ उसको-
इतना  कहता  है
जब  आँखों मे उमड़ूँ
उसे लिपिबद्ध करो
और फिर उसी पवित्र
प्रवाह निर्झर मे-
मुक्त निर्बाध
बह कर देखो.
एक बार प्रेम को
अवसर देकर देखो.


-शिशिर सोमवंशी