Friday, February 20, 2015

वह एक दिन....

जिस दिन
इन्हीं हाथों से,
फिसली थी
आशा की
अंतिम किरण.
और शैशव
के धृष्ट
उत्साह ने,
किनारा किया.
ठीक से
याद नहीं,
आज जैसा ही
लगता था-
थोड़ा तन्हा
उदास
बेमतलब.

अपरिचित
उल्लसित स्वर,
संगीत की
ध्वनियाँ,
गूँज कर
बुझ गयीं,
मेरे आस-पास
बेमतलब.
जैसे बेजान
ज़िस्म मे,
चलती थी
सांस बेमतलब.

नींद खुलने
पर घबरा जाऊं
पास उसको
नहीं पाकर
वो जो उतरा था
चुपके से-
मेरे चेहरे पे
मेरी आँखों मे.
देर तक उनमे
रोशनी ढूँढे,
ये अंधेरा सा
ख्वाब बेमतलब.
रोज़ ऐसे ही
बीत जाया करे,
ज़िंदगी जैसी ये
रात बेमतलब.

-शिशिर सोमवंशी


Saturday, February 14, 2015

साथ का रंग

आँसुओं का रंग,
नहीं दिखता,
सबको,
किंतु होता है.
स्वाद भी,
किंचित खारा
और उनके स्पर्श
की अनुभूति भी,
गुनगुनी सी.

संभवतः
मुझे कहना ही,
नहीं था.
यह प्रलाप अपना.
अपने अवसाद
को मार्ग,
बाहर का नहीं,
भीतर का,
दिखाना था.
अब तो,
दोगुनी हुई
मुझसे त्रुटि.
तीक्ष्णता,
पीड़ा की
अनायास,
कितनी
बढ़ा दी मैने.
इस ओर,
मैं रहा अपूर्ण,
अपने दुख से
व्यथित.
उधर वो है
मेरे त्रास मे
विचलित.

प्रेम मात्र
प्राप्ति की,
प्यास बनकर,
क्यूँ नही पला,
मुझमे- उसमे?
दोराहे पर
अनचाही विदा
के बाद,
स्मृतियों से,
नयी राह को,
अपमानित क्यूँ
ना किया गया?
अपने मुख पर
मूक, स्थिर
गंभीर सा भाव
क्यूँ ओढ़ लिया?

देखना कहीं,
मध्य अपने
दुर्बलता ना
आ जाए,
क्योंकि दुर्बल हूँ.
मुझे आँसुओं
का रंग भी
विदित है,
स्पर्श की
ऊष्णता से,
भी परिचित हूँ.
स्वभाव के
खारेपन से भी-
संपर्क कहीं गहन
रहा है मेरा.
हो सकता है,
पुरानी किसी
विशेष स्मृति,
की कौंध पर,
अथवा
नये किसी
स्वप्न की
आहट  पर,
मैं होता रहूँ
उदास यूँ ही.
बरबस
उतरती रहे,
मेरी पलकों मे नमी.
चाहने से भी,
दबाने से बहुत.
पनप आया करे,
तुम्हारे संग
की तृष्णा,
मेरे अंतर की कमी.

देखना नहीं,
मौन ही
रह जाना,
अपने हाथों मे,
मेरा हाथ
मत लेना.
इन आँखों को,
देख पाऊँगा नहीं.
कहीं और तुम
लगा लेना.
हो सके
इतना ही तुम,
कर लेना-
कर पाओ.
मेरे उस दुर्बल
पल वहीं,
उसी जगह,
रुक जाना-
साथ का भी
कोई रंग नही,
होकर भी,
होता है.


शिशिर सोमवंशी

Sunday, February 8, 2015

दुख मेरे

कितनी प्रचंड,
कितनी प्रखर हो,
काल की धूप
सुखाती उन्हे है,
पास जिनके
नहीं होते अश्रु-
उनकी चिरस्थाई
आद्रता की
सजल
उपस्थिति.
और मैं हूँ
रोम रोम
भीगा हुआ,
आद्योपांत
द्रवित.

इस जीवन की,
सतत पीड़ा,
के मध्य भी,
कुछ दुख हैं,
नितांत अपने.
जिनसे छली,
नही गयी,
मेरी प्रकृति.
ऐसे दुख,
अंततः सुखद,
जिनकी
परिणति.
और बाँधे रही
थामे रही
संबल बनकर
जिनकी 
उपस्थिति.

मैं कैसे
हो जाऊँ?
निर्मोही,
स्वार्थ-मय
संकुचित.  
त्याग कर
सानिध्य इनका-
बिसार दूँ
इनकी
संगति?
मुझ पर
मेरी आत्मा
पर भी है
मित्रता का
वचन यह  
अघोषित.

-शिशिर सोमवंशी

Tuesday, February 3, 2015

वृक्ष और पठार

एकाकी नग्न
पठार पर
उगा अकेला
वृक्ष हूँ
समस्त अभावों
और सतत
विपरीतता में
पनप उठा
दिवास्वप्न-
जिसे यथार्थ ने
सहयोग करना
अस्वीकृत किया.

किंतु जिसने
जीवन के प्रति
अपनी आस्था को
जीवित बचाए रखा.
वैसे ही जैसा
एकाकी पठार
के लिए
एक एकाकी
वृक्ष ने किया-
किसी को कभी
अकेला मत
रहने दो.

दो शब्द कभी
उस अपरिचित
से भी
कह दो
बिना वजह,
बिना अधिक
सोचे विचारे,
जो अकेला
पड़ता दिखे
संबंधों के
अरण्य मे.
निशब्द सूख
ना जाए -
सरस्वती 
मानवीय
संवेदना की
धर्म, अर्थ, काम
और मोक्ष की
दुविधाओं मे,
निर्बाध इसे
बहने दो...


-शिशिर सोमवंशी