Monday, March 16, 2015

दुविधा

ये तन मेरा
मुझे छोड़ के
चल देता है,
मैं बेबस रह
जाता हूँ.
रेंगता घिसटता,
इसके पीछे.

मेरा मन
हाथ खींचे,
रोके मुझको.
मैं दूर से
देखूँ ख़ुद को,
निरुद्देश्य,
भटकते हुए
बात करते,
स्वयं को
समझने समझाने
के यत्न मे
तल्लीन.
कितना लचर
कितना लाचार.

आस बँधती है,
कोई लगता है
आता हुआ,
रुकता हुआ,
अपने  जैसा.
आता है,
सुनता है,
समझता भी है.
साथ भर,
रह नहीं पाता.

उसके मिलने के
उत्साह मे
मेरा तन
पिघल जाता है,
थोड़ा ज़्यादा.
बोल जाता है
अपनी सीमा
से ऊपर.
कुछ उथला,
कुछ हल्का,
कहीं कृत्रिम.
मन दूर खड़ा,
देख कर भी,
रोक नही पाता.

जिसने देखा मुझे,
जब भी देखा,
जितना देखा.
तन ही देखा,
तन ही समझा.
मन को बेदाग़
रखने के प्रयास,
उहापोह और
उलझन मे,
मैने इस बार
भी तुमको
देखा है.
क्या तुम
तन को
परे रखकर
मेरे मन को
देख पाओगे?

मन का ना
हो पाने की
पीड़ा घनी                      
हो उठती है
कोई समय
नही इसका.
सतत कमी के
आभाष मे
जीवित रहना
अपने तन के
प्रपंच सहना,
भारी होता है.
क्या तुम
मेरे मन का
तनिक सा
बोझ उठाओगे?


शिशिर सोमवंशी