Tuesday, April 28, 2015

काया की कारा

बंदी हृदय मेरा,
काल के क्रूर 
कठोर बंधनों का,
दुस्सह नियंत्रण में,  
स्वास की गतियां, 
सुविधा से बरती गयी, 
दोमुँही छद्म मर्यादा।
परिचित अपरिचित
बींधती दृष्टियां। 
मेरी स्वयं चुनी
हुई काराएँ,
स्वरूप बदलती,
प्रतिक्षण परिवर्तनशील, 
रोकने को आकांक्षा के
सूक्ष्म से उद्वेग को। 
बीत गया मधुरिम सब, 
नहीं बीतता सुखों का 
अनवरत वनवास। 

उस पर मुझे 
सहज प्राप्य,
मेरे सम्मुख उसके
बारंबार आ जाने
की नियति-
ऐसी जैसे
भावना विहीन,
शीघ्रता से संप्रेषित,
अधूरे मन से दिया
अपूर्ण सा आशीर्वाद। 
मस्तक पर लिखित-
सर्वदा सशंकित
एवं अर्ध फलित.
भाग्य का प्रहास। 

एक वो है विश्व 
की निर्झर विष-वर्षा में 
भीगते हुए भी 
स्वयं में निर्विकार।  
स्पर्श कर ही 
लेती है मुझको,
निज बंधनों पर
होकर विजित,
तोड़ती निज कारा को।  
मूक नयनों की  
करुंण भाव भंगिमा से, 
देर तक सोच कर
कहे गए किंचित
अपनत्व के शब्दों में 
अनेकों अर्थों को 
समेटे  हुए।   
मोम का पिघलाता मुझे  
ढाढस का उसका 
आत्मीय प्रयास. 

ऋतु, प्रकृति या काल 
कोई विलगाव
कोई भी अंतराल
मध्य नहीं आता इस
अदृश्य स्पर्श के,
जिस में समाहित
लाखों समागमों का उत्कर्ष
आनंद का चरम 
और उसकी संतृप्ति।  
प्रातः, दिवस, रात्रि 
बना रहे जिसका लोभ 
पलती रहे जिसकी आस।  

एकाकी होने पर
सोचने लगता हूँ
कई बार सहसा 
किस लिए मैं ही 
उसे छू नहीं सकता?
इस काया की कारा में 
उलझे रहे व्यर्थ 
क्यों हम दोनों 
सतत जीवन पर्यन्त 
देह से सर्वथा ऊपर तुम 
देह का बंधक मैं पतित। 
मैं हूँ चिर एकाकी 
और साथ है 
जीवन संध्या में  
शूल सा चुभता आभाष।

शिशिर सोमवंशी 

Sunday, April 26, 2015

चाँद और मैं

ओर से छोर तक
आसमान की उदासी में
चाँद और मैं दोनों
साथ चले बीती रात.
अंधेरो में बड़ी कोशिश से
अपने आप को संभाले
चाँद और मैं दोनों
साथ जले बीती रात.
चाँद को मैनें घबरा के
अपने अकेलेपन से कहीं
थाम लिया बीती रात.
चाँद ने भी मुझे छोड़ा नहीं
तन्हा ना किया बीती रात.
चाँद मुझे बिल्कुल तुमसा
ही लगा बीती रात.

Wednesday, April 22, 2015

मैं हूँ.....

प्रेम ही प्रेम हूँ,
अतिरेक हूँ
आह्लाद का.
आकंठ डूबा हुआ
तुम्हारे नेह के
उल्लास में.

तुमने नहीं
बाँधा मुझे मैं
खुद ही स्थिर
हो गया हूँ,
नयनों के अद्भुत
पाश में.

तुम जो कहो
या ना कहो.
तुम हो यहाँ
या ना रहो-
पाओगे मुझको
हर तरफ,
हर शब्द के
अर्थों में तुम.
हर दृश्य की
गतिविधि में तुम
ऋतुओं के सारे
अनुभवों में-
रुदन और परिहास में.

मेहंदी नहीं
जो अवसरों पर
खिल उठे.
मैं इंद्रधनुषी
रंग हूँ.
जो रच गया
गहरे कहीं
तुम में कहीं
कुछ इस तरह.

होकर विमुख,
चल दूँ विलग
उस मार्ग पर
जिस मार्ग को
कहते हो तुम,
होगा नहीं
तुम चाह लो
जितना बने,
मन से अधूरे
जिस तरह.

अमृत सदृश
आसक्ति को
आनंद से
मैंने पिया
अब व्यर्थ क्यूँ
सोचूँ मैं अब
कितना जिया
कैसा जिया.

मेरे तुम्हारे
मध्य में सहसा
उभर आई
तुम्हारी अनमनी
विरक्ति की
इस धूल को
तन पर लपेटे
गर्व से
शृंगार कर लूँगा

आभाष भी
होगा नहीं
मैं तुम्हे कब
प्यार कर लूँगा

शिशिर सोमवंशी

Monday, April 20, 2015

अप्रत्याशित

थोड़ा समय
बीत चुका है,
अपने हृदय के
विश्व को पाकर
आशाओं के
लोक में विचरण
करते हुए.
स्निग्ध प्रेम की
मधुरिम अनुभूति
को जीते हुए,
अब बस कुछ
अनिष्ट होने ही
वाला है.
विगत अनुभव
बता रहे हैं,
मेरा अभागा मन
इस पल को
बाँध नही पाएगा.
शीघ्र इसे
खोने ही वाला है.

कोई खोट है
अंतर्निहित मेरे
अस्तित्व में-
मेरे जीवित
स्वरूप में संभवतः.
किसी अज्ञात श्राप की
परिणित हूँ जैसे.
सदैव संदेहों में
सांस ली है
और अविश्वास
की तुला पर
तिल तिल कर
तोला गया.
मेरे प्राण पर
शंकित दृष्टियों
का क्रूर आकलन
पुनः हावी होने
ही वाला है.
मेरा अभागा मन
इस पल को
बाँध नही पाएगा.
शीघ्र इसे
खोने ही वाला है.

आपाधापी ऐसी
बनी रहती है
मैं यंत्रवट चलता
रहता हूँ,
कहता सुनता हूँ.
चेहरे पर अपेक्षित
भावों को
समायोजित किए.
अपनी निज़ी
वेदना को उचित
एकांत दे कर.
इस पर भी
जब कुछ क्षण
अनायास मिल जाएँ
यूँ ही त्रुटिवश
तरुणाई के मीत से.
तभी उतर आते हैं
सघन घोर       
मलिन घन
जीवन पर नियम से
अविलंब और
ढांप लेते हैं
उस प्रिय, मधुर
अपनत्व को.

सुना था
बादलों की संगति
के सन्दर्भ में-
प्रथम प्रेम सी
नमी उसमें,
सार्थक स्वप्न
की सी स्थिरता.
दूर से ही सत्य
है सभी कुछ.
पास आते ही
धुवें की घुटन
जिसमे हर अगली
सांस अंतिम लगे.
इसी आशंका में
जिया नहीं जाता,
मेरा अभागा मन
इस मनमीत को
बाँध नही पाएगा.
शीघ्र इसे
खोने ही वाला है.

ऐसे में
स्वप्न टूटते हैं
बिना आवाज,
संग छूटते हैं
बिना बताए.
संवेदनाएँ मरती हैं
स्पंदन-विहीन.
डूबकर उतरा आती हैं
उसी स्मृति की
झील की अतल
गहराइयों में
जहाँ प्राप्ति की
नैसर्गिक अभिलाषा,
संसर्ग की अबोध
तृष्णा ने
मुँह उठाया था
पहली बार
और यह
आभाष हुआ था
मेरा अभागा मन
इस पल को
बाँध नही पाएगा.
शीघ्र इसे
खोने ही वाला है.
--शिशिर सोमवंशी