Tuesday, October 20, 2015

ज़िंदगी का आँचल

वर्तमान के 
उथलेपन से 
निकाल कर 
ज़िंदगी को बहुत 
क़रीब जाकर 
समझने का मन 
अब नहीं होता।
पास जाने से 
रंग छोड़ने 
लगता है उसका 
सतरंगी आँचल।  
और मैं उसे
लज्जित नहीं
देखना चाहता  
बदरंग होते हुए। 

वैसे भी
पास जाकर
मिला हूँ जब भी
यही लगा
इसे अपनाना
इस से
प्रेम करना
इतना सरल नहीं
जैसा तुमने
जाते समय
बैठा कर
समझाया था।
मेरा अपना
सत्य  इतना है -
दूरी से प्रेम
बढ़ता है।
१९ जून १९९३ 

शिशिर सोमवंशी

Friday, October 2, 2015

उसके लिए

असत्य है कि मन
नहीं करता उसका
अपने सुख को
समेट लेने का ।
उन्मुक्त हो
भय और संशय के
बंधनों से उबर कर ,
प्रहरी दृष्टियों के
सर्वथा असभ्य  
अवांछित
एवं अनिधिकृत
प्रवेश से विद्रोह कर।
पक्षी की तरह
स्नेह के विस्तृत
नीले आकाश में
दूर तक विचर कर
जी उठने का। 

आस अतिशय नहीं,
अपेक्षाओं का भार
विकराल है।
अपने मन का समय
अत्यंत सीमित
कर्म की गति तीव्र
और कृपण काल है। 

वर्षों से निरंतर
अंतहीन प्रलाप में
दुखद बिछोह के
अपने विलाप में
अनभिज्ञ क्यों
बन जाता हूँ
सब जानते हुए
हठ के अतिरेक में
मोह के संताप में।
मानता नहीं कि
आसान है मेरे लिए
कठिन  उसके लिए
मुझे बस उसी को
सोचना है और
उस को बहुत सारा
सोचना होता है -
मुझको सोचते हुए। 

                       शिशिर सोमवंशी 

मोक्ष

तन की तृष्णा
धन की आशा
बल और यौवन
की अभिलाषा  
सीमित स्वासों की
गतियों मे
अपना अपना
मोक्ष सभी ने
चाहा है ।
जीवित रहते
मोक्ष भला
किसको कब
मिल पाया है?
मृत्यु से पूर्व
एक बार
मेरे प्रेम को
स्वीकार करके
तृषित मुझ
पथिक को
आराम दे दो।
मेरा मोक्ष
तुम्ही में स्थिर
मुझको चिर
विश्राम दे दो। 

नियति क्या 
पुरुषार्थ क्या 
स्वार्थ और
परमार्थ क्या 
सैकड़ों जन्मों से
उलझा हूँ
अब मुक्ति
मुझको चाहिए ।
भोग्य  की  पीड़ा
और प्रारब्ध  के
दुष्चक्र से
अब  उबर जाने
दो मुझको –
अपनी आँखों की
वैतरणी में
उन्मुक्त  हो कर
तैरने का
परम सुख
तुम मुझे
अभिराम दे दो।
मेरा मोक्ष
तुम्ही में स्थिर
मुझको चिर
विश्राम दे दो।

कर्म की इस
यात्रा में
प्राप्ति के सुंदर
नगर पर
नाम जिसका भी
लिखा हो
स्नेह के तुम
पंच बनकर
आज अंतिम
न्याय कर दो
अपने मधुर
सानिध्य का
मेरा लघु सा
ग्राम दे दो। 
मेरा मोक्ष
तुम्ही में स्थिर
मुझको चिर
विश्राम दे दो।

शिशिर सोमवंशी