Monday, September 26, 2011

आओ लौट चलें

वो शांत वृक्ष/
उनके गहरे हरे पत्ते/
पसरी हुई पगडंडी पर/
रह रह के उभर आते/
वो बैंगनी से फूल/
खिल खिलाती नदी/
और उसकी धार में/
गुदगुदाहट से/
हंस हंस के लोटते/
गोल सफेद पत्थर.....
उन्ही पतों पर/
वहीं रहते हैं.
उसी तस्वीर मे/
हर रूप- हर रंग मे/
बसते हैं अभी.




आओ लौट चलें/
कि वो भागे नही/
हमारी तरह/
हम से कहते हैं/
माँ ने बच्चों के घर/
लौट के आ जाने पर/
कुछ कहा है कभी?

-शिशिर सोमवंशी
[देहरादून से दिल्ली की शताब्दी रेल से यात्रा मे २४ सितंबर २०११.]

Thursday, September 1, 2011

लिफ़ाफ़ा


मैंने कई बार कहा
मैं उजला,साफ़ काग़ज़,
मुझ पर लिखो
कुछ ऐसा जो
कोई देखे, सराहे और
सहेज़ कर रखे.
जैसे सदियों की बचत;
मेहनत की ख़री पाई.

समय ने किस की सुनी,
मैं बन के रह गया
एक ऐसा लिफ़ाफ़ा
जिस पर
जिसका जो मन आया,
वैसी क़ीमत का,
टिकट चिपका दिया;
और ऐसी मंज़िलों का,
पता घसीट दिया;
जो मेरी न थीं.

जहाँ लिफ़ाफ़ा तो
पहुँचता रहा....
मैं नही-
इतने बरसों मे,
इतने सालों मे,
मेरी बारी ही थी;
जो नही आई.

इसको पढ़ना और
भूल जाना तुम,
दिल पर अपने,
न बोझ लाना तुम,
ज़िंदगी बीता करती है
कई बार यूँ ही-
अपने मन का ,
नही होता हरदम.

आज फिर हंस के
निकलने का दिन है
राह मे बिखरें हैं;
वो नही मोती-माणिक
काँच के टुकड़े हैं;
चुभती है तो क्या-
ख़ुद के सपनों की
ये कमाई.

-शिशिर सोमवंशी