Saturday, February 14, 2015

साथ का रंग

आँसुओं का रंग,
नहीं दिखता,
सबको,
किंतु होता है.
स्वाद भी,
किंचित खारा
और उनके स्पर्श
की अनुभूति भी,
गुनगुनी सी.

संभवतः
मुझे कहना ही,
नहीं था.
यह प्रलाप अपना.
अपने अवसाद
को मार्ग,
बाहर का नहीं,
भीतर का,
दिखाना था.
अब तो,
दोगुनी हुई
मुझसे त्रुटि.
तीक्ष्णता,
पीड़ा की
अनायास,
कितनी
बढ़ा दी मैने.
इस ओर,
मैं रहा अपूर्ण,
अपने दुख से
व्यथित.
उधर वो है
मेरे त्रास मे
विचलित.

प्रेम मात्र
प्राप्ति की,
प्यास बनकर,
क्यूँ नही पला,
मुझमे- उसमे?
दोराहे पर
अनचाही विदा
के बाद,
स्मृतियों से,
नयी राह को,
अपमानित क्यूँ
ना किया गया?
अपने मुख पर
मूक, स्थिर
गंभीर सा भाव
क्यूँ ओढ़ लिया?

देखना कहीं,
मध्य अपने
दुर्बलता ना
आ जाए,
क्योंकि दुर्बल हूँ.
मुझे आँसुओं
का रंग भी
विदित है,
स्पर्श की
ऊष्णता से,
भी परिचित हूँ.
स्वभाव के
खारेपन से भी-
संपर्क कहीं गहन
रहा है मेरा.
हो सकता है,
पुरानी किसी
विशेष स्मृति,
की कौंध पर,
अथवा
नये किसी
स्वप्न की
आहट  पर,
मैं होता रहूँ
उदास यूँ ही.
बरबस
उतरती रहे,
मेरी पलकों मे नमी.
चाहने से भी,
दबाने से बहुत.
पनप आया करे,
तुम्हारे संग
की तृष्णा,
मेरे अंतर की कमी.

देखना नहीं,
मौन ही
रह जाना,
अपने हाथों मे,
मेरा हाथ
मत लेना.
इन आँखों को,
देख पाऊँगा नहीं.
कहीं और तुम
लगा लेना.
हो सके
इतना ही तुम,
कर लेना-
कर पाओ.
मेरे उस दुर्बल
पल वहीं,
उसी जगह,
रुक जाना-
साथ का भी
कोई रंग नही,
होकर भी,
होता है.


शिशिर सोमवंशी

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