Friday, February 20, 2015

वह एक दिन....

जिस दिन
इन्हीं हाथों से,
फिसली थी
आशा की
अंतिम किरण.
और शैशव
के धृष्ट
उत्साह ने,
किनारा किया.
ठीक से
याद नहीं,
आज जैसा ही
लगता था-
थोड़ा तन्हा
उदास
बेमतलब.

अपरिचित
उल्लसित स्वर,
संगीत की
ध्वनियाँ,
गूँज कर
बुझ गयीं,
मेरे आस-पास
बेमतलब.
जैसे बेजान
ज़िस्म मे,
चलती थी
सांस बेमतलब.

नींद खुलने
पर घबरा जाऊं
पास उसको
नहीं पाकर
वो जो उतरा था
चुपके से-
मेरे चेहरे पे
मेरी आँखों मे.
देर तक उनमे
रोशनी ढूँढे,
ये अंधेरा सा
ख्वाब बेमतलब.
रोज़ ऐसे ही
बीत जाया करे,
ज़िंदगी जैसी ये
रात बेमतलब.

-शिशिर सोमवंशी


No comments:

Post a Comment