Monday, November 22, 2010

आदमी की जड़ें

जिस पौधे को,
ज़िंदा रहना होता है,
वो अपने हिस्से का जल,
निष्ठुरतम शिलाओं को,
छिन्न कर पी लेता है.



पुष्प दिखतें हैं,
दिखती है लताओं की कांति,
पल्लवों की हरीतिमा,
उसके भीतर का संघर्ष-
दिखता है किसे.



समय अनुकूल हो,
साधन हों, सुविधाएँ हों-
योग्यता छलक पड़ती है,
सामर्थ्य उभर आती है,
कोई भी जी लेता है.


आदमी अपनी जड़ों को,
संभाले-जमा कर रखे,
अश्रु, स्वेद और शोणित से,
नम रखे उन्हे-
बार बार सूख के,
उगना है जिसे.

-शिशिर सोमवंशी

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