Friday, November 26, 2010

रात के आँसू


है निशा का प्रहर अंतिम,
नींद से भारी हैं पलकें,
वो भी सोना चाहती है.

प्रश्न कैसा प्यार भी,
सूर्य का व्यवहार भी,
मौसमों के साथ ही,
क्यों बदलने सा लगा है.

यूँ समय का देख कर छल,
बादलों से माँग कुछ जल,
खूब रोना चाहती है.

पल्लवों पर, प्रस्तरों पर,
देख कर के ओस-कण,
मान तो लेगा नही वो,
रात रोई रात भर उसके लिए,

रात पागल, प्रेम पागल,
हार कर भी, टूट कर भी,
आस की टूटी हुई,
माला मे मोती-
क्यों पिरोना चाहती है.

-शिशिर सोमवंशी

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