Monday, January 12, 2015

यही उचित है

यही उचित है,
कि हार जाऊँ,
अब मैं.
उद्दांत नदी,
के वेग को,
बाँधने की
अभिलाषा,
परछाईयों को,
थामने की
प्रत्याशा,
भावों का,
पूर्वाग्रही
आकलन और
शब्दों की
स्वार्थी
परिभाषा.
कहाँ तक,
कब तक?

यही उचित है,
कि हार जाऊँ,
अब मैं.
मान लूँ-
मैं वही हूँ.
जो तुमने
सोचा,
समझा,
सहा
और जिया.

यही उचित है,
कि हार जाऊँ,
अब मैं.
इसलिए कि-
अंतर्मन मे  
निहित सत्य,
सत्य होकर भी,
होता सच्चा नहीं.
साध्य ही,
प्रधान है.
और प्राप्ति
ही प्रमुख.
उसके मध्य
का अनुभूत,
आधा कच्चा नहीं.

यही उचित है,
कि हार जाऊँ,
अब मैं.
क्योंकि विकट है,
विश्व यह.
दारुण हैं,
अनुभवों के,
विविध-विचित्र
आयाम इसके.
यहाँ अपनी,
सोच नहीं.
सबकी समझ,
से ही
जीना होता है.
अपनी श्रांत,
टूटी देह
और दिन-रात्रि,
के मंथन से
उपजा अमृत,
तिल तिल
बँट जाता है.
छल, कपट
के सतही
संबंधों मे.
और स्वयं
बारंबार
नीलकंठ
होना होता है.
-शिशिर सोमवंशी

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