Saturday, January 24, 2015

नहीं बोलूँगा

अब मैं
बोलूँगा नहीं,
कहीं भी,
कभी भी,
कुछ भी -
मेरे शब्द,
गंतव्य तक,
पहुँचते नहीं.
भाव एकाकी,
बावरे, उदास
घूम फिर के,
लौट आते हैं,
वापस मेरे पास.
कहने को,
शेष बचा नहीं.
समझने के,
अनुरोध की,
अनाधिकार
चेष्टा भी
की नहीं मैने.
इतने पर भी,
क्यूँ है उसको..
सुनने भर से
इतना प्रतिवाद?

इतना कहा-
बीते सालों में.
इसलिए नहीं,
कि बोलना,
प्रिय है मुझे.
प्रिय वो है-
उससे साथ की
एक एक बात-
उसके होने,
मात्र का,
अप्रतिम आहलाद.

जो अतीत है-
ना व्यतीत.
जीवित है,
समाहित है
मेरी अपनी,
प्रकृति और
मेरे बने-बिगड़े,
गढ़े-अनगढ़े,
स्वरूप में.
यूँ भीग गया,
उसके रसरंग
और
लालित्य में-
कहीं भी रहूं,
कुछ भी कहूँ,
अर्थ-भरा,
लगता है
मेरा साधारण
संवाद...

मौन की पूंजी,
इतनी जुटाई,
है तुमसे.
इन दिनों,
उनुत्तरित प्रश्न,
भी प्रश्न करने,
लगे हैं मुझसे.
यथार्थ, सत्य
मूल्यों-आदर्शों से,
बरबस सामना,
होने लगा है मेरा.
हर संबंध की,
एक निर्धारित दिशा
बताते हुए
सतही संकेत...
क्या जान पाएँगे?
यह अकुशल
अपवाद.

-    शिशिर सोमवंशी

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