Sunday, January 4, 2015

सुबह के सपने

मैनें सुबह
के स्वप्न मे,
फिर से तुम्हे देखा.
देखकर यही लगा,
कि अब तुम
बस ही जाओ,
मेरी आँखों का
सपना बनकर.

कल राह मे,
उसी परिचित
घुमाव के पास,
तुमको देखा.
देखकर यही लगा,
मैं उम्र भर इसी
रास्ते से गुजरूँ,
और तुम
मिला करो मुझसे,
मील का
पत्थर बनकर.

एक बार ही
तुमने कदम रखे,
मेरे आँगन मे
अंजाने मे.
निखरा सँवरा,
गुनगुनाता सा
लगा उस दिन,
उसका हर कोना.
सोचता हूँ अब तक,
दिन जल्दी ढले
लौट आऊँ मैं,
और तुम वहीं
बाट जोहो मेरी,
मेरा घर बनकर.


-शिशिर सोमवंशी

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