Wednesday, April 22, 2015

मैं हूँ.....

प्रेम ही प्रेम हूँ,
अतिरेक हूँ
आह्लाद का.
आकंठ डूबा हुआ
तुम्हारे नेह के
उल्लास में.

तुमने नहीं
बाँधा मुझे मैं
खुद ही स्थिर
हो गया हूँ,
नयनों के अद्भुत
पाश में.

तुम जो कहो
या ना कहो.
तुम हो यहाँ
या ना रहो-
पाओगे मुझको
हर तरफ,
हर शब्द के
अर्थों में तुम.
हर दृश्य की
गतिविधि में तुम
ऋतुओं के सारे
अनुभवों में-
रुदन और परिहास में.

मेहंदी नहीं
जो अवसरों पर
खिल उठे.
मैं इंद्रधनुषी
रंग हूँ.
जो रच गया
गहरे कहीं
तुम में कहीं
कुछ इस तरह.

होकर विमुख,
चल दूँ विलग
उस मार्ग पर
जिस मार्ग को
कहते हो तुम,
होगा नहीं
तुम चाह लो
जितना बने,
मन से अधूरे
जिस तरह.

अमृत सदृश
आसक्ति को
आनंद से
मैंने पिया
अब व्यर्थ क्यूँ
सोचूँ मैं अब
कितना जिया
कैसा जिया.

मेरे तुम्हारे
मध्य में सहसा
उभर आई
तुम्हारी अनमनी
विरक्ति की
इस धूल को
तन पर लपेटे
गर्व से
शृंगार कर लूँगा

आभाष भी
होगा नहीं
मैं तुम्हे कब
प्यार कर लूँगा

शिशिर सोमवंशी

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