Monday, April 20, 2015

अप्रत्याशित

थोड़ा समय
बीत चुका है,
अपने हृदय के
विश्व को पाकर
आशाओं के
लोक में विचरण
करते हुए.
स्निग्ध प्रेम की
मधुरिम अनुभूति
को जीते हुए,
अब बस कुछ
अनिष्ट होने ही
वाला है.
विगत अनुभव
बता रहे हैं,
मेरा अभागा मन
इस पल को
बाँध नही पाएगा.
शीघ्र इसे
खोने ही वाला है.

कोई खोट है
अंतर्निहित मेरे
अस्तित्व में-
मेरे जीवित
स्वरूप में संभवतः.
किसी अज्ञात श्राप की
परिणित हूँ जैसे.
सदैव संदेहों में
सांस ली है
और अविश्वास
की तुला पर
तिल तिल कर
तोला गया.
मेरे प्राण पर
शंकित दृष्टियों
का क्रूर आकलन
पुनः हावी होने
ही वाला है.
मेरा अभागा मन
इस पल को
बाँध नही पाएगा.
शीघ्र इसे
खोने ही वाला है.

आपाधापी ऐसी
बनी रहती है
मैं यंत्रवट चलता
रहता हूँ,
कहता सुनता हूँ.
चेहरे पर अपेक्षित
भावों को
समायोजित किए.
अपनी निज़ी
वेदना को उचित
एकांत दे कर.
इस पर भी
जब कुछ क्षण
अनायास मिल जाएँ
यूँ ही त्रुटिवश
तरुणाई के मीत से.
तभी उतर आते हैं
सघन घोर       
मलिन घन
जीवन पर नियम से
अविलंब और
ढांप लेते हैं
उस प्रिय, मधुर
अपनत्व को.

सुना था
बादलों की संगति
के सन्दर्भ में-
प्रथम प्रेम सी
नमी उसमें,
सार्थक स्वप्न
की सी स्थिरता.
दूर से ही सत्य
है सभी कुछ.
पास आते ही
धुवें की घुटन
जिसमे हर अगली
सांस अंतिम लगे.
इसी आशंका में
जिया नहीं जाता,
मेरा अभागा मन
इस मनमीत को
बाँध नही पाएगा.
शीघ्र इसे
खोने ही वाला है.

ऐसे में
स्वप्न टूटते हैं
बिना आवाज,
संग छूटते हैं
बिना बताए.
संवेदनाएँ मरती हैं
स्पंदन-विहीन.
डूबकर उतरा आती हैं
उसी स्मृति की
झील की अतल
गहराइयों में
जहाँ प्राप्ति की
नैसर्गिक अभिलाषा,
संसर्ग की अबोध
तृष्णा ने
मुँह उठाया था
पहली बार
और यह
आभाष हुआ था
मेरा अभागा मन
इस पल को
बाँध नही पाएगा.
शीघ्र इसे
खोने ही वाला है.
--शिशिर सोमवंशी

No comments:

Post a Comment