Tuesday, February 15, 2011

रात को समर्पित

थक के चूर हूँ,
बेदम हूँ,
बेसुध हूँ मैं.

मुझको बाहों में,
पड़े रहने दो,
बस यूँ ही-
बिना संवाद.

बहुत मुश्किल,
बहुत भारी था,
ये दिन,
आज का दिन.

किसी दुःस्वप्न सा,
गुजरा है जो,
अंगुल-अंगुल
तुम्हारे बिन.

शर्वरी तुम हो,
सखी कोई,
मिली हो इतने
अंतराल के बाद.

-शिशिर सोमवंशी
(पुरानी कविता; १३ अक्तूबर २००३)

Thursday, February 10, 2011

मछलियाँ और संबंध


कई साल बाद,
कहीं समय मिला.
और नही कटा-
चला आया मेले में.

सब कुछ था,
फिर भी भा गयीं-
रंग-बिरंगी मछलियाँ:
काँच के बर्तनों मे,
डूबती उतराती,
चपल और चंचल,
कोई शैतान बच्चे सी
मुँह चिढ़ाती हुई,
दूसरी किसी यौवना सी,
देर तक आँख मिलने से,
कुपित होती हुई.
कोई रूठे दोस्तों सी,
मुँह सुजाए.

समय होगा नही,
क्यूंकी होता नही कभी,
जानकर भी
ले लीं मैने,
कुछ मछलियाँ-
बड़े जतन से
अलग अलग रंगत की -
मगर बेजान.

प्लास्टिक की,
इसलिए कि वोह,
मेरे बिना भी तैर लेंगीं,
अकेले ही,

पानी बदलने का,
आग्रह नही करेंगी,
वायु के संचार,
और आहार की,
अपेक्षा भी नहीं.
मेरे साथ रहेंगी.

और रहीं भी,
कभी सुना नहीं उनसे,
मुझे पता था,
वो हैं मेरे पास-
हमेशा हर पल

............फिर
आज समय मिला,
कई सालों मे
तो मछलियों को देखा:
वैसे ही बिना शिकायत,
तैरते हुए उनको
मगर पाया-
खुश नहीं थीं.

मुझे माफ़ करना-
मेरे दोस्त- मेरे हमसफर,
मेरी उपेक्षा और.....
उस समय के लिए,
जो तुम्हारा था,
तुम्हे मिला नहीं-

मछलियाँ चाहे बोलें-
या ना बोलें.
समय मांगती हैं
.....और संबंध भी.

- शिशिर सोमवंशी