Friday, November 26, 2010

रात के आँसू


है निशा का प्रहर अंतिम,
नींद से भारी हैं पलकें,
वो भी सोना चाहती है.

प्रश्न कैसा प्यार भी,
सूर्य का व्यवहार भी,
मौसमों के साथ ही,
क्यों बदलने सा लगा है.

यूँ समय का देख कर छल,
बादलों से माँग कुछ जल,
खूब रोना चाहती है.

पल्लवों पर, प्रस्तरों पर,
देख कर के ओस-कण,
मान तो लेगा नही वो,
रात रोई रात भर उसके लिए,

रात पागल, प्रेम पागल,
हार कर भी, टूट कर भी,
आस की टूटी हुई,
माला मे मोती-
क्यों पिरोना चाहती है.

-शिशिर सोमवंशी

Monday, November 22, 2010

आदमी की जड़ें

जिस पौधे को,
ज़िंदा रहना होता है,
वो अपने हिस्से का जल,
निष्ठुरतम शिलाओं को,
छिन्न कर पी लेता है.



पुष्प दिखतें हैं,
दिखती है लताओं की कांति,
पल्लवों की हरीतिमा,
उसके भीतर का संघर्ष-
दिखता है किसे.



समय अनुकूल हो,
साधन हों, सुविधाएँ हों-
योग्यता छलक पड़ती है,
सामर्थ्य उभर आती है,
कोई भी जी लेता है.


आदमी अपनी जड़ों को,
संभाले-जमा कर रखे,
अश्रु, स्वेद और शोणित से,
नम रखे उन्हे-
बार बार सूख के,
उगना है जिसे.

-शिशिर सोमवंशी

Sunday, November 21, 2010

प्रश्न कोई और नही

ज़िंदगी ने जितने/
प्रश्न किये/
उस से ज़्यादा/
मैने जवाब दिए/

इतना सब हुआ/
इतना होने पर/
जो हल ना हुई/
उस पहेली का/
कोई हल निकले.

जिसे तुमने यथार्थ/
समझ के जिया/
जिस भ्रम को मैने/
बरसों पाला/
और दुलार दिया/

सत्य- असत्य का/
द्वंद क्यों पालें/
अंतरात्मा पर/
बोझ क्यों डालें/

जैसे बीती है/
बीतने दो ना-
जैसे निकला/ है आज/
कल निकले.

अब नया प्रश्न/
कोई और नही/
खुद से लड़ने/
का कोई ठौर नही/

अपने बारे क्यों/
सफाई दें/
जो समझते नहीं/
उन्हे समझाएँ/

उनके कहने से/
बोल पड़ें/
और उँगली को/
देख रुक जाएँ/

सांस घुटती है/
ऐसे जीने से/
दम निकलता है/
इसी पल निकले.

-शिशिर सोमवंशी
(ऐसे प्रश्नों पर जिनका उत्तर पूछ्ने वाले ने तय किया हुआ है)

Monday, November 15, 2010

हायवे की धूल


मैं हायवे की धूल,
की तरह फैल कर,
तुमसे लिपट जाने को हूँ;
ये जानकार भी कि-
मुझको देखकर तुम,
अपनी गाड़ी के,
शीशे चढ़ा लोगे.
मुझसे पीछा छुड़ा,
गुजर जाओगे तेज़ी से.
अपने गंतव्य को,
मन मे बसाए हुए.

मैं तो ऐसे ही,
दूर तक आऊँगी,
तुम्हारे पीछे.
और फिर थक के-
बिखर जाऊंगी-
तुम्हारे दोबारा इस राह,
चले आने की आशाओं,
को सजाए हुए.

-शिशिर सोमवंशी (२७ एप्रिल १९९८; किसी उधेड़ बुन में)

Thursday, November 11, 2010

मिलूँगा तुमसे

मैने उजाले से सीखा/
फैल जाना/ परिवेश पर/
निसंकोच/
थोड़ा थोड़ा ही सही.

तुमने अपनायी/
अंधेरों की झिझक/
और समेटते गये/
स्वयं को/ अपने भीतर/
कमी किसी की नहीं.

दृष्टि से/ क्यूँ समझौते/
प्रकृति से/ क्यों संघर्ष/
आज जैसा है/
वो चाहा नहीं/
और यदि है तो/
चलो ऐसा ही सही.

कहीं रहो/ कैसे भी रहो/
मिलूँगा तुमसे/
तुम्हारे बंद कमरे की/
खिड़कियों की/ दरारों से-
मेरा कहना है यही.

-शिशिर सोमवंशी

Monday, November 8, 2010

कोई हार गया ?

तुम जीते या समय जीता,
उस आदमी से,
तुम्हारी जीत पर,
जिसका ईमान हारा नहीं.

उस डाली से,
जिसे तुमने तोड़ दिया,
झुका नहीं पाए.

उस किताब से,
जो तुम्हे नापसंद थी,
और जला दी गयी.
मगर जिसकी राख,
तुम्हारे चेहरे पर फैल कर,
बग़ावत कर रही है.

चलो मान लिया तुम जीते-
जीत मुबारक तुमको,
फिर भी ये ज़रूरी नहीं,
कि तुम्हारे जीतने से,
हर बार कोई हार गया.

- शिशिर सोमवंशी

Friday, November 5, 2010

दिल मे आजकल

अलग सा/ मौसम है/
आजकल/ दिल मे /
नया सा/ लगता है/

किसी भी/ बात का/
असर होता नहीं/
मुझ पर/ कोई कुछ भी कहे/

दिल अब/ कुछ भी/ कहता नहीं/
सिर्फ़ सुनता है/
और ऐसा भी नहीं/
सुन के समझ/ जाता है/

लोग समझते हैं/
तो समझा करें/
और समझाएँ मुझे.

इतना उलझा हूँ/
अपने आप मे/
अपनी उलझन मे/
कौन समझे मुझको/
कौन सुलझाए मुझे.

- शिशिर सोमवंशी

Wednesday, November 3, 2010

शाम की सोच


दिन रुका नहीं/
दौड़ता निकल गया/
हाथ मे/ थोड़ा रहा/
ढेर सा/ फिसल गया/

और उतरती शाम को/
साथी बनाकर/
चल दिया मैं/ सोच कर ये/
जो हुआ/ अच्छा हुआ

-शिशिर सोमवंशी
१४ फरवरी २००० (क्यूँ लिखी याद नही)

किसी को उदास देखकर

आँख रोई नहीं,
पर नम तो है.
झूठी आशा की किरण के पीछे,
मैं भी जीवन की तरफ़ भागा हूँ,
थक के चूर हुआ, सांस भारी है-
हाथ ख़ाली हैं और दिल है भरा-
दर्द कुछ कम है,
इतना कम तो नहीं.

कई बार किसी मौके पर
मैने आकाश को चूमा है,
मगर पा ना सका-
ख़ैर यह भी कुछ कम तो नहीं.

- शिशिर सोमवंशी