Sunday, December 6, 2015

मन मेरा करने लगता है

प्रियतम के प्रिय के पथ पे जो पुष्प बिछा कर आया हो।
इतने पर भी मन के भीतर जो प्रेम बचा कर आया हो।
किंचित उसका हो जाने का मन मेरा करने लगता है।

उत्सव की मधुरिम रागिनियों में रुदन दबा के लौटा हो।
समझा कर अपने साथी को जो बात छुपा के लौटा हो।
उस पर यह गीत लुटाने का मन मेरा करने लगता है।

मौन पराजय से अपनी दो विजय सुनिश्चित कर दे जो।
अपने स्वप्नों की बलि दे के साथी का जीवन भर दे जो।
एक उसकी विजय दिलाने का मन मेरा करने लगता है।

पीड़ा को संचित निधि माने मेहनत से उसे सहेजे पर।
हर्षित जीवन जब देखे तब अपने प्रियतम को पा जाए।
ऐसा  पागल बन जाने का मन मेरा करने लगता है।

ऐसा प्रेमी विरला जिसका जग कितना ही उपहास करे।
पाने खोने से परे निकल वह  विरही  हो उल्लास करे।
इस योग पे शीश नवाने का मन मेरा करने लगता है। 

Wednesday, December 2, 2015

सरस्वती सा तन

आज सुबह
उठने पर
वर्षों का श्रांत
यह शरीर विद्रोह
कर ही बैठा।
उग्र हो बोला मुझे
बहुत हुआ
बस भी करो अब। 
बंद करो अपनी
आकांक्षाओं का दोष
मेरे मस्तक
पर मढ़ना। 
बंद करो यह
मन की शुद्धता एवं
तन की विवशता
की कल्पित
कथा गढ़ना। 

किसे भागी बनाया
तुमने भोग के
ओछे आह्लाद में ?
कभी मेरे कंधे पर
उचक कर
अपने अहं में ,
कहीं मेरी शक्ति से
अर्जित किए
यश, पद, प्रतिष्ठा
और विलासिता के
तुच्छ प्रमाद में। 

 मैं शरीर मेरा 
कोई मूल्य नहीं
यह असत्य
तुम्हारा धर्मग्रंथ
कहता है ?
अरे वह अवतार भी
अपनी लीला
अपनी मर्यादा को
मुझमे आ कर ही
रहता है।

तुम्हारे हैं मेरे नहीं
मोह और
उनके बंधन।
तुम्हारे हैं संबंध
उनसे तृप्ति
उनके द्वंद
और उनके क्रंदन।
अपने लोभ को
मुझ पर मत लादो,
अब मुक्त करो
मुझको और मत बांधो।

मैं देख सकता हूँ
जो तुम नहीं देखते
मैंने देखा है तुम्हें
पूर्व में भी
कई जन्मों में।
मुझे दिखता है
गल रहा हूँ,
घट रहा हूँ,
किन्तु जर्जर होने से
बहुत पहले ही
मुक्त कर
दूंगा तुम्हें
मैं पुनः अपने
दश द्वार से। 
क्योंकि स्वार्थी
नहीं तुम सा
देखना उस दिन
जब दबे होगे
मेरे उस अंतिम
उपकार से। 

 तुम नहीं होगे 
तुम्हारे प्रलाप नहीं। 
तुम्हारे असंतोष
तुम्हारी अतृप्ति का
यह जलता हुआ
ताप नहीं।
शीतल हो रहूँगा
शांत स्थिर
भूमि पर
जो तुमसे संभव
नहीं होता
प्रात: प्रथम रश्मि से
निशा के अँधियारे तक।
आह हिम सा
ठंडा मैं
बंधा हुआ 
बांस की शैय्या पर
फिरूँगा  उन्ही
नगर के  मार्गों पर
परिचित अपरिचित
काँधों पर अंतिम बार
अंतिम यात्रा में
गंगा के किनारे तक।

सूखी लकड़ियाँ 
लेशमात्र घी से
बदल जाएंगी
लपलपाती  गर्म
लाल लपटों में
मेरी पूर्णाहुति
अपनाने को।
हर अंग से
तुम्हारे सुख और
पीड़ा के
अवशेष छान कर
अलग करती हुई
गंगा की धारा
व्याकुल मुझे
पाने को।
हिम से मैं राख़
हो जाऊंगा ।
त्रिवेणी मे समाकर
पवित्र अदृश्य
सरस्वती सा
खो जाऊंगा।

शिशिर सोमवंशी

पश्चाताप

जिन कथनों
को तुम्हें पुनः
समझाना पड़े,
सीधे शब्दों में से
कोई सुविधा का
अर्थ बतलाना पड़े,
इस पुनरावलोकन
से कठिन
श्राप कोई नहीं। 

तुम्हारे सत्य को
फिर से स्थापित
करने का उपक्रम,
स्वयं को झूठा
कहने का श्रम, 
इस व्यर्थ के
प्रायश्चित से बुरा
पाप कोई नहीं।

किसी को
प्रत्याशा अधिक
हो जाती है,
अपनी क्षमता के 
परे आशा अधिक
हो जाती है।
प्रेम से कहे
शब्दों के समय
के साथ दुर्बल
होने सा संत्रास,
स्नेह की दृष्टि
पाकर उसे
खोने से बुरा
संताप कोई नहीं।

मैंने सुना था
शब्द ऊर्जा हैं
तैरते रहते हैं
कहे जाने के बाद
युगों युगों तक,
मैं तुम्हारे प्रथम
अभिसार का ही
श्रवण करता हुआ,
तुम्हें प्रतिकार के
पश्चाताप से
रक्षित कर,
आयु को अतीत
कर गुज़रूँगा।

अनर्गल आक्षेपों की
दुस्सह पीड़ा
का दंश
जिसे भोगा है
मेरे जीवन ने
उसकी छाया
तुम्हारे उज्जवल
अस्तित्व पर
नहीं गिरने दूंगा ।

अवगत हूँ मैं
चाह को जानना
नितांत सरल
और चाह को
मानना  कितना
दुरूह है
इस जग में-
निर्दयी शब्दों की
अनवरत वर्षा में
मौन रह झूठ
सिद्ध होने सा
अभिशाप कोई नहीं।

शिशिर सोमवंशी 

Tuesday, December 1, 2015

संबंध

सुनो पारखी
मीत मेरे
पुराने फलित
स्नेह सम्बन्धों को
सर माथे बिठाओ ।
 
पलकों पर  
उठा कर उन्हें,
शिखरों की
उत्तुंग ऊंचाई
तक पहुंचाओ । 

स्वयं सिद्धि की
एकांगी धारा में
रिश्तों के
जीवन रस की
अंतिम बूंदों के
बहने तक।
अहम तुष्टि में
कुछ  जाने
कुछ अनजाने
नामों की
घुटती साँसे शेष 
रहने तक। 

वहाँ उस
ऊंचाई पर
पहुंचा कर उन्हे
जहां कुछ
बचता नहीं
भुनाने को। 

उनका हाथ
छुड़ा लेना और
धकेल देना
अतल खाई में,
विस्मृत कर चले
आना वापस,
कुछ नए संबंध
बनाने को। 

जहां  प्रतीक्षारत
मुझसे कई
एक आत्मीय दृष्टि
मधुर  स्वर
और  कोमल स्पर्श  का
बंधन सहर्ष
अपनाने को-
छले  जाने को।

शिशिर सोमवंशी