Monday, December 5, 2011

तुम्हारे साथ


तुम्हारे साथ,
मैं हूँ भी
और नही भी,

तुम्हारी भाषा
सुन
रहा हूँ मैं.

और समझ रहा हूँ
तुम्हारी कही भी..

कहने से सुनना,
और सुनने से
समझ जाने मे..

सुख है,
सार्थकता है.

रिश्तों मे अधूरेपन मे ही...
उनकी संपूर्णता है.

अधूरा हूँ,
जीवित हूँ..
हर पल पूरा हो रहा हूँ.

मिठास सा
घुल रहा हूँ

कौन कहता है
चुक रहा हूँ मैं?

Friday, October 21, 2011

शोर

क्या कहूँ?
कितना सुनूं?
किसकी सुनी
समझा नहीं;
तो भी कहूँ,
सीखा अतुल
समझा बहुत.
पर प्रश्न मेरे,
हरदम रहे,
चुप-चाप; एकल,
अनुत्तरित.

यह शोर सब,
शब्दों मे ही,
बहता रहा.
हर ओर से,
हर छोर से,
कोई ना कोई,
कुछ ना कुछ,
बोला किया,
कहता रहा.
एक एक निमिष
अनवरत.
जीवन सतत्.


शिशिर सोमवंशी

Monday, September 26, 2011

आओ लौट चलें

वो शांत वृक्ष/
उनके गहरे हरे पत्ते/
पसरी हुई पगडंडी पर/
रह रह के उभर आते/
वो बैंगनी से फूल/
खिल खिलाती नदी/
और उसकी धार में/
गुदगुदाहट से/
हंस हंस के लोटते/
गोल सफेद पत्थर.....
उन्ही पतों पर/
वहीं रहते हैं.
उसी तस्वीर मे/
हर रूप- हर रंग मे/
बसते हैं अभी.




आओ लौट चलें/
कि वो भागे नही/
हमारी तरह/
हम से कहते हैं/
माँ ने बच्चों के घर/
लौट के आ जाने पर/
कुछ कहा है कभी?

-शिशिर सोमवंशी
[देहरादून से दिल्ली की शताब्दी रेल से यात्रा मे २४ सितंबर २०११.]

Thursday, September 1, 2011

लिफ़ाफ़ा


मैंने कई बार कहा
मैं उजला,साफ़ काग़ज़,
मुझ पर लिखो
कुछ ऐसा जो
कोई देखे, सराहे और
सहेज़ कर रखे.
जैसे सदियों की बचत;
मेहनत की ख़री पाई.

समय ने किस की सुनी,
मैं बन के रह गया
एक ऐसा लिफ़ाफ़ा
जिस पर
जिसका जो मन आया,
वैसी क़ीमत का,
टिकट चिपका दिया;
और ऐसी मंज़िलों का,
पता घसीट दिया;
जो मेरी न थीं.

जहाँ लिफ़ाफ़ा तो
पहुँचता रहा....
मैं नही-
इतने बरसों मे,
इतने सालों मे,
मेरी बारी ही थी;
जो नही आई.

इसको पढ़ना और
भूल जाना तुम,
दिल पर अपने,
न बोझ लाना तुम,
ज़िंदगी बीता करती है
कई बार यूँ ही-
अपने मन का ,
नही होता हरदम.

आज फिर हंस के
निकलने का दिन है
राह मे बिखरें हैं;
वो नही मोती-माणिक
काँच के टुकड़े हैं;
चुभती है तो क्या-
ख़ुद के सपनों की
ये कमाई.

-शिशिर सोमवंशी

Tuesday, August 16, 2011

तुम्हारी आखों मे मेरे रंग


मैं वही तस्वीर हूँ,
जिसे बनाते बनाते,
तुम्हारा मन उचट गया.
रंग वहीं आस पास थे,
तुन्हे दिखने बंद हो गये.
कोई रंज़ नहीं;
जो मैं पूरी न हुई.
जो पूरी ही हो जाए-
वो ज़िंदगी कहाँ?

ये जो भी है,
झूठी-सच्ची, कच्ची-पक्की..
और अधूरी सी सही-
तुम्हारी है.

एक बात कहूँ तुमसे?
कुछ देर को रंगों,
की तलाश को भूल,
कूची को किनारे कर,
अपने हाथों से:
बना दो मुझको.

सजाओ इतना ही-
कि सह सकूँ मैं भी;
जो यह बदरंग है;
धूमिल सा है-
मेरा अपना एक,
रंग ही तो है
चीज़ अपनी है-
मुझे प्यारी है.

-शिशिर सोमवंशी

Wednesday, July 27, 2011

तुम और मैं


वो भी तुम्ही हो/
ग्रीष्म की/
तप्त दोपहर/
जो बीतते बीतते/
देर तक ठहरी/
बिना आमंत्रण अनायास/
चुपके से चली आई/
और शीतल कर गयी/
वो सांझ-
तुम्ही हो.

चमक कर/
फैली हुई/ये धूप/
तुम्ही हो/
झिझक कर/
सिमट गयी/
थी जो रात.

तुम्ही हो/
हर रंग/
हर घटना/हर मौसम;
मेरा बसंत भी/
शिशिर भी/
मेरी भटकन/
मेरी मुक्ति;
अतीत, व्यतीत/
और वर्तमान/
मुझमे घुला/
सब रस/
मुझसे बँधी/ हर बात.

तुम्ही सब कुछ हो-
मैं तो बस/
वो समय हूँ;
जो तुम्हे छू कर
यूँ ही निकल गया;
क्यूँ कहते हो कि-
मैं बदल गया.

शिशिर सोमवंशी

Sunday, July 24, 2011

सोमवार का स्वर

कई बार खोने मे,
प्राप्ति सा सुख होता है.
बहुत बार पा कर भी,
तृप्ति का आनंद नही.

वचन जब शब्द हों-
वार्ता औपचारिकता.
मिलना एक रस्म सा,
बिछड़ना भाव-विहीन.
आँखें देख लेती हैं-
जाने क्या क्या.
दिल से नही कहतीं-
कि दुखी होगा नासमझ.
संजोता है संबंध
परखता नहीं.

मैं लौट आया हूँ;
नीरव एकांत के दिनों से,
छला जा कर,
चुपचाप उसी मेले मे,
गुम हो जाने को.
जिसमे अपनी भी
झलक मिलती नहीं.

मैं सुखी हूँ-
कि मैं यहाँ हूँ-
इस सब के बीच,
जीवन के छोटे छोटे
सुखों मे सिमट के-
और व्यर्थ के दुखों को,
पोस कर, सहेज कर.
खुश हूँ कि ज़िंदा हूँ-
ऐसी ज़िंदगी तो
सब को मिलती नही.

-शिशिर सोमवंशी

Monday, June 13, 2011

प्रतिरोध

बंद कमरे मे भी,
पता चल रहा है-
कि शाम उतर रही है,
बाहर खिड़की के,
पर्दों के पीछे,
धीरे धीरे.

सुबह से ही था,
थक गया मन-
तन चलता रहा,
घड़ी के साथ,
धीरे धीरे.

बहुत हुआ जितना सहा,
मैं भी उठकर,
हटा ही दूँगा-
इन पर्दों को,
काँपते हाथों से,
धीरे धीरे.

बाहर जो बिखर रही है,
उस ख़ुश्बू की ख़ातिर,
या पल पल ठंडी होती,
हवाओं के लिए?
बात ऐसी भी नही.

बहुत देर उजाले को,
रोक कर रखा,
अब अंधेरो को,
रोक लूँ-
कहाँ धीरज बचा-
कहाँ सामर्थ्य रही.

-शिशिर सोमवंशी


Friday, April 29, 2011

मेरी भीड़

आँख खुली,
बाहर देखा-
भीड़ थी,
बहुत सारे लोगों की भीड़,
नायक, महानायक, मसीहों से
दिग्दर्शित, संचालित और रक्षित भीड़.

देवता, ईश्वर और ख़ुदा.
किसी के सौ हाथ,
किसी की उंगली पर पर्वत,
सब के सब प्रभावशाली,
महान आभामंडल युक्त.


हाथों मे मस्जिदों, गिरजों, मंदिरों,
चाबियाँ थामे,
आशीर्वाद देते-
पुजारी, पादरी और मौलवी-
मंत्र फूँकते, आहुति देते,
मीनारों पर चिल्लाते.
उनके पीछे,
कुंभ नहाती
घंट बजाती
तिलक लगाती भीड़,
टोपियाँ संभालती भीड़.

भीड़ मे खुसुर पुसुर करते,
मेरी जाति के लोग,
पड़ोसी पर संदेह करते पड़ोसी,
शुद्ध, बड़े, संपन्न.
छोटे, दलित, कुचले हुए,
धर्म और मर्यादा को कस के पकड़े लोग.
गौरांग और आर्य भीड़,
श्याम चर्म और मोटी नासिका
वालों की भीड़.

मुझे भी जल्दी से,
अपनी भीड़ चुन लेनी है,
मेरी मदद करो-
मुझे मेरी भीड़ तक पहुँचा दो,
बिना भीड़ के मैं-
मर जाऊँगा.
पहुँचा दो मेरी बाँह
पकड़ के खींच के
उन लोगों की भीड़ मे:
जो भीड़ को नही देखते,
भीड़ से नही सहम जाते,
उसमे बहते नहीं-
अप्रभावित उसे काट कर
आगे निकल जाते हैं-
अकेले.

शिशिर सोमवंशी

Tuesday, February 15, 2011

रात को समर्पित

थक के चूर हूँ,
बेदम हूँ,
बेसुध हूँ मैं.

मुझको बाहों में,
पड़े रहने दो,
बस यूँ ही-
बिना संवाद.

बहुत मुश्किल,
बहुत भारी था,
ये दिन,
आज का दिन.

किसी दुःस्वप्न सा,
गुजरा है जो,
अंगुल-अंगुल
तुम्हारे बिन.

शर्वरी तुम हो,
सखी कोई,
मिली हो इतने
अंतराल के बाद.

-शिशिर सोमवंशी
(पुरानी कविता; १३ अक्तूबर २००३)

Thursday, February 10, 2011

मछलियाँ और संबंध


कई साल बाद,
कहीं समय मिला.
और नही कटा-
चला आया मेले में.

सब कुछ था,
फिर भी भा गयीं-
रंग-बिरंगी मछलियाँ:
काँच के बर्तनों मे,
डूबती उतराती,
चपल और चंचल,
कोई शैतान बच्चे सी
मुँह चिढ़ाती हुई,
दूसरी किसी यौवना सी,
देर तक आँख मिलने से,
कुपित होती हुई.
कोई रूठे दोस्तों सी,
मुँह सुजाए.

समय होगा नही,
क्यूंकी होता नही कभी,
जानकर भी
ले लीं मैने,
कुछ मछलियाँ-
बड़े जतन से
अलग अलग रंगत की -
मगर बेजान.

प्लास्टिक की,
इसलिए कि वोह,
मेरे बिना भी तैर लेंगीं,
अकेले ही,

पानी बदलने का,
आग्रह नही करेंगी,
वायु के संचार,
और आहार की,
अपेक्षा भी नहीं.
मेरे साथ रहेंगी.

और रहीं भी,
कभी सुना नहीं उनसे,
मुझे पता था,
वो हैं मेरे पास-
हमेशा हर पल

............फिर
आज समय मिला,
कई सालों मे
तो मछलियों को देखा:
वैसे ही बिना शिकायत,
तैरते हुए उनको
मगर पाया-
खुश नहीं थीं.

मुझे माफ़ करना-
मेरे दोस्त- मेरे हमसफर,
मेरी उपेक्षा और.....
उस समय के लिए,
जो तुम्हारा था,
तुम्हे मिला नहीं-

मछलियाँ चाहे बोलें-
या ना बोलें.
समय मांगती हैं
.....और संबंध भी.

- शिशिर सोमवंशी

Tuesday, January 11, 2011

यादों की भरपाई

विस्मृत होकर भी,
स्मृति मे बची रही,
परछाईं को.
आज किन्ही,
बच्चों मे पाया,
अपनी उस,
तरुणाई को.

कुछ एकांत खोज,
कहीं पर,
अपने उपर,
मरना है.
कितने ही धुंधले,
चेहरों से,
जबरन परिचय,
करना है.

शब्दहीन बस,
भावों ही से,
संवादों को,
रचना है.
और बहुत सा,
जीना है-
यादों की,
भरपाई को.

आज किन्ही,
बच्चों मे पाया,
अपनी उस,
तरुणाई को.

नाम स्मरण,
ना आए तो,
थोड़ा सा,
अकुलाना है.
और उभर,
आने पर सहसा-
जैसे निधि,
पा जाना है.

स्वप्न पूर्व का,
मिल जाने पर,
लज्जा से,
सकुचाना है.
और किनारे,
बैठ डूबना है-
इस विस्तृत,
सागर में,
मुक्त लता सा,
लहराना है,
सोख-सोख कर
सोंधी सी,
पुरवाई को.

आज किन्ही,
बच्चों मे पाया,
अपनी उस,
तरुणाई को.

-शिशिर सोमवंशी
(पोनमूडी, केरल जनवरी २०१०)

Friday, January 7, 2011

विलाप की उत्कंठा



आज पुन:,

विलाप की,

उत्कंठा है तो,

रो लो जी भर के,

अपने मन का.

किंतु औचित्य क्या,

यदि अंतिम न हो,

इस पीड़ा का,

इस रुदन का.


यह संत्रास,

रिस जाएगा,

इस निशा के,

आंचल मे-

सबसे छुपकर,

माध्यम बस-

सत्य से,

पलायन का.

निज-कल्पित,

निज-चिंतन का,

ना मार्ग है,

ना क्रम है,

जीवन का.