Monday, November 30, 2015

चोरी की डायरी

हर समय
आज कल
यही भय रहता है
यही आशंका
कि वो पुरानी
डायरी कहीं
कोई चुरा न ले
जिस से मैं
ये कवितायें
चुराया करता हूँ। 

स्वीकृति के
लोभ में
उलझा हुआ,
किंचित प्रशंसा
के मोह में किसी
अन्य व्यक्ति
और उसके
इंद्रधनुषी रंगों
को अपना
बताया करता हूँ।

असीमित
अपेक्षायों का
अपराधी मैं
अतिशय सीमित
वह विस्तृत
किन्तु नहीं
भाँप पाया
ये मेरा
कुटिल चातुर्य ,
कैसे उसकी
सजीवता में
अपनी निर्जीव
कलम को डुबो,
अनर्गल शब्दों
से सज्जित कर
स्वरों और छंदों
को जूड़े सा
कसकर बांध,
कभी सर्वथा
मुक्त रहने दे
विजय के ढोंग में
अपनी पराजय
छिपाया करता हूँ।

उसी  डायरी से
उभर आया
अदना सा कवि,
उन पन्नों से
निर्मित लेखक,
कुंठा से क्लांत
हर क्षण इस
फेर में लगा हुआ,
पढ़कर किसी 
काव्य की
असपष्ट पंक्तियाँ,
समझ ना
पाये कोई,
यह ना जाने-
मेरी कविता
कहीं और है
भावनाओं को
बांधता रहता हूँ ,
अपने बरबस
उत्साह का मुंह
दबाया करता हूँ। 

शिशिर सोमवंशी 

टुकड़े टुकड़े बातें


मैं कैसे भला समझूँ

मैं कैसे भला समझूँ जो उसने कहा है।
लफ़्जों से नहीं बोला आँखों में निहाँ है।

होना था यही होना जो हो के रहा है।
दामन है मेरा छोटा तू कितना बड़ा है।

एक मेरे ही बारे में वो सोचता है इतना ।
कुतरे हुए नख उसके कर देते बयां हैं।

फिर मैं नहीं आऊँगा देखने को तुमको।
जब लौट के आया हूँ हर बार कहा है।  

वो आज खफ़ा है कल मान भी जाएगा।  
मुझसा नहीं शैदाई ये उसको पता है। 

अरमान