Friday, July 29, 2016

प्रारब्ध का श्वान

विगत योनियों के
विस्मृत अजाने
पाप से पोषित,
प्रारब्ध के
समर्पित श्वान का
कर्म के फल से
गहन चिरद्वेष है।
काया से काया
अनुगमन कर,
आकांक्षा की
क्षीण आहट पर,
अपनी कर्कश
भयावह ध्वनि से
सुनिश्चित कर ही
देता है निर्मम-
इष्ट सखा का
सुख सानिध्य
प्राप्त हो न
जाए कदाचित,
जिस के लिए
इन योनियों में
आत्मा की
दुस्सह यात्रा
अभी तक शेष है।
शिशिर सोमवंशी 

Thursday, June 2, 2016

मिलन

तुम और मैं
मिलें अब तो,
ऐसे मिलें
जैसे शुद्ध धवल
प्रथम वर्षा की
बूँदें मिलती हैं,
स्वयं को श्याम
सघन मेघों के
हर बंधनों से
मुक्त कर के,
भीषण तड़ित की
अग्नि और शब्द
के भय से निकल,
आपस में मिल
एकसार हो कर,
धारा बन
धरा पर
बहते बहते
संग में समा जायें
सुख से वहीं
उस ताल में
सर्वस्व खोकर,
अमरत्व पाकर,
समय की ताल पर।

शिशिर सोमवंशी

Tuesday, May 31, 2016

स्याही के छींटें

उन सुगंधित पन्नों
पर बिखरे हुए
स्याही के छींटों का
यह  विनम्र अनुरोध
स्वीकार कर लो-
यदि तुम वही हो
जो तुम्हारा नाम है।

क्षमा करो किन्तु
यह नाम विशेष
इसकी ध्वनि अब
व्यथित करती है हमें
गूँज कर बारंबार
कुछ बिखरे हुए
छंदों में से,
अनेकों अनगढ़े
गीतों के बोलों से। 

संभव हो सके
तुमसे तो
मिलो उसे
जो तुम्हारे लिए
नहीं लिखता -
तुमको लिखा
करता है ।
तुम्हें देखने से
कोई भी
सहजता से
यह जान लेता है
अंजुरी में अद्भुत
शब्दों को भर भर
जिस चित्र  को वह
रचा करता है
वह तुम्हीं हो
बस तुम नहीं
समझे कभी या
समझना चाहते नहीं।  

एक बार
चले आओ
समीप उसके ,
बिना किसी
भाव एवं भावना
के वश में हुए-
दया से नहीं
अतिरेक से नहीं ,
स्नेह या स्वीकृति
को भी नहीं ,
सत्य से परिचय,
वस्तुस्थिति और
वास्तविकता का
बोध कराने  वाली  
मनः स्थिति  में
उलझे  बिना
स्वयं से मिलने । 

कोने में पड़ी
मेज के पास
अपनी पदचाप
का स्वर दबा
कांधे के ऊपर से
झाँक कर
देखो  वहाँ  उसको –
वो कलम से
तुम्हारा ही चित्र
गढ़ता  हुआ
वहाँ न कवि है
न कोई रचयिता
बस एक बिछड़ा
हुआ नकलची
मित्र है तुम्हारा-
आओ उसका
नाम ले कर
चौंका दो उसको।
क्या जाने
कोई गीत पूर्ण
हो जाए उसका।  

शिशिर सोमवंशी 


नयी सुबह

जिस सुबह तुमको
आँखें खुलने पर
बाहर का प्रकाश
अपरिचित प्रतीत हो,
अंतस का अंधकार
अपना साथी-
खिड़की पर
पर्दे खींच कर
पलायन न
करते हुए,
विप्लवी हो
स्वयं से निर्मम
विरोध छेड़ देना।  

द्वार खोल कर
उसी चुभते हुए
प्रकाश में
निकल पड़ना,
मन और भाव से
दिगंबर हो
अनावृत्त व
पूर्णत: असुरक्षित,
सत्य की तीव्र
आँच को सेंकने।
देखना अपनी
कल्पित काया से
नैराश्य का मैल
पिघल कर
बहता हुआ,
कुंठाओं का कलुष
सूखे तृणों सा
जल कर आहुति
देता हुआ। 

जीवन स्मित हो
कह उठेगा-
तुम वही हो
जो तुम
होना चाहते हो,
वह भी तुम्हीं ,
जो तुम चाह कर
नहीं हो पाते,
और वह भी
जो तुम
हो रहे हो
अब धीरे धीरे । 

तुम अपने हृदय,
अपने विचारों और
स्वर्णिम स्वप्नों के,
सबल सेनापति हो,
वृद्ध सम्राट नहीं
कि तुम्हारा युद्ध
भाड़े के पोषित
सिपाही लड़ें।
स्वयं को
स्वयं से विजित करो-
हर नयी सुबह
स्वयं के लिए। 

शिशिर सोमवंशी 

सही , गलत








तुम यूँ
समझो इसे,
तुम जैसे
सूर्य हो
उत्तरायन का,
पूरे दिन भर
कर्म की अग्नि में
उबल कर। 
संध्या होते होते
भटक कर
हार कर
मलिन एवं श्रांत
लौटते हो मेरे
आगोश में
मचल कर।
तुम सही हो-
तुम पुरुष हो।

वहीं मैं जैसे
रात्रि हूँ
शिशिर की,
श्री विहीन
हिम की तीव्र
सुइयों सी
चुभती हुई।,
तुम्हें स्वयं में
समाने देती हूँ
पहल कर।
तुम्हारे ताप को
शीतल करने में
किंचित उष्णता
को पा जाती हूँ
तुम्हारे संसर्ग में
जल कर।
मैं गलत हूँ-
मैं स्त्री हूँ।  

कहीं मेरे और
तुम्हारे मध्य,
भोग की
मर्यादाएं हैं।
तन को
बाँधते हुए
नियम हैं
मन का दमन
करती हुई
वर्जनाएं हैं।

सुविधानुसार
विश्लेषित,
सब कुछ
आपस में
उलझा असपष्ट,
प्रचारित  एवं
उपदेशित।
इसमें
तुम और मैं
दोनों गलत हैं।
यह विश्व है।

शिशिर सोमवंशी 



उसने क्या किया ?

जो किया
तुमने किया
उसने बस
प्रेम मात्र ही न।
उसके पास
विकल्प कहाँ थे,
तुम्हारे पास थे
निर्णय लेने के,
तुमने लिए।

वहीं प्रेम के
एक निर्णय से
उसने अपने
समस्त विकल्प
त्याग दिये।

जो किया
तुमने किया
उसने बस
प्रेम मात्र ही न।
तुम्हारे सम्मुख थीं
प्राथमिकतायें 
किन्तु उसकी
प्राथमिकता तुम थे ।
दोनों ने ही
अपने चयनित
जीवन जिये। 

जो किया
तुमने किया
उसने बस
प्रेम मात्र ही न।
सफल तुम रहे 
कर्तव्य एवं
संबंध निभा कर 
असफल तो
वह भी नहीं –
प्रेम कर तुमको 
बिना किसी प्रश्न 
बिना कोई
परिवाद किए।

शिशिर सोमवंशी 

संघर्ष पर श्रद्धा

बहुधा कोई
अपने विश्वास से
नहीं हारता,
वरन स्वयं पर
किसी प्रिय का
अविश्वास उसे
पराजित कर जाता है। 

विजयश्री सदैव
दृढ़ता ही नहीं देती
कदाचित स्वयं पर
रखी गयी अगाध
आस्था का बल
दुर्बलतम को भी
उत्साहित कर जाता है।

संघर्ष कब 
पराजय स्वीकार
कर किए जाते हैं ?
मस्तिष्क में उपजे  
संदेहों के द्वार पर
कड़ी लगाकर
जताया गया
किसी का विश्वास
व्यक्ति के प्रयास को
स्वीकृत कर जाता है।

शिशिर सोमवंशी