Sunday, July 24, 2011

सोमवार का स्वर

कई बार खोने मे,
प्राप्ति सा सुख होता है.
बहुत बार पा कर भी,
तृप्ति का आनंद नही.

वचन जब शब्द हों-
वार्ता औपचारिकता.
मिलना एक रस्म सा,
बिछड़ना भाव-विहीन.
आँखें देख लेती हैं-
जाने क्या क्या.
दिल से नही कहतीं-
कि दुखी होगा नासमझ.
संजोता है संबंध
परखता नहीं.

मैं लौट आया हूँ;
नीरव एकांत के दिनों से,
छला जा कर,
चुपचाप उसी मेले मे,
गुम हो जाने को.
जिसमे अपनी भी
झलक मिलती नहीं.

मैं सुखी हूँ-
कि मैं यहाँ हूँ-
इस सब के बीच,
जीवन के छोटे छोटे
सुखों मे सिमट के-
और व्यर्थ के दुखों को,
पोस कर, सहेज कर.
खुश हूँ कि ज़िंदा हूँ-
ऐसी ज़िंदगी तो
सब को मिलती नही.

-शिशिर सोमवंशी

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