Friday, December 31, 2010

बीतता पल

बीतता हर पल कह रहा है,
जा रहा हूँ-
क्योंकि निमित्त है,

किंतु गमन समापन नही,
साथ रहेगा वो सब,
जो मेरे साथ-साथ बीता-


तुम्हारे आचरण मे,
तुम्हारी एक एक बात मे-
उल्लास मे और रुदन मे,
विफलता मे और उपलब्धि मे,

मेरे सानिध्य को,
आज विदा की इस बेला मे,
लज्जित ना करो,

मुझे संबंधों की गर्माहट,
अथवा दुराव की टीस,
प्रारब्ध का दोष,
भाग्य की कठोरता,
समझ कर विस्मृत,
कर देने पर भी,

मैं रहूँगा तुम्हारे अंतर मे,
तुम्हारी प्रखरता की,
शुभकामना के साथ.

शिशिर सोमवंशी
तिरुअनंतपुरम ७.०७ शाम को २०१० के साल का निवेदन हम सब के लिए.

Tuesday, December 14, 2010

प्रकाश की परंपरा

दूर क्षितिज के पास,
कुरूप काले पर्वतों ने,
छिपा लिया है-
तेजस्वी सूर्य को.

और दिया है निमंत्रण,
तिमिर के असुरों को,
आओ आगे बढ़ के,
जीत लो उजाले को.

किंतु क्रम प्रकाश का,
रुक नही जाता,
चन्द्रिम किरणें तब,
प्रतिनिधित्व करती हैं,
सूर्य के प्रयास का.

ऐसे ही किसी दिन,
अमावस भी आती है,
जब सूर्य नही होता,
और चंद्रमा भी नही,

सुदूर किसी दीप की,
लौ जगमगाती है,
अमावस जीत कहाँ पाती है?

-शिशिर सोमवंशी

Wednesday, December 1, 2010

एक काग़ज़

तुम्हे देख कर,
कभी कभी,
भय होता है-

एक दिन,
समय के किसी,
अंतराल पर,


मैं भी तुम्हारी,
बहुत सी वस्तुओं,
की ही तरह,
बेकार हो जाऊँ.

और तुम मुझे,
फाड़ दो,
उस काग़ज़ के जैसे,

जो मात्र इसलिए,
गंदा हो जाता है-
कि उस पर,
किसी का नाम,
लिखा होता है.

कुछ भी हो,
उन काग़ज़ों को,
सहेज के रखना,
अपने से अलग,
मत करना-

लिखावट नही रहेगी,
समय की बारिश मे,
रह जाएगा,
वो समर्पण
और अभिषार,

जिसने तुम्हे
अपने हृदय के,
हर पृष्ठ पर,
बार बार,
लिख दिया था.

-शिशिर सोमवंशी