Wednesday, December 1, 2010

एक काग़ज़

तुम्हे देख कर,
कभी कभी,
भय होता है-

एक दिन,
समय के किसी,
अंतराल पर,


मैं भी तुम्हारी,
बहुत सी वस्तुओं,
की ही तरह,
बेकार हो जाऊँ.

और तुम मुझे,
फाड़ दो,
उस काग़ज़ के जैसे,

जो मात्र इसलिए,
गंदा हो जाता है-
कि उस पर,
किसी का नाम,
लिखा होता है.

कुछ भी हो,
उन काग़ज़ों को,
सहेज के रखना,
अपने से अलग,
मत करना-

लिखावट नही रहेगी,
समय की बारिश मे,
रह जाएगा,
वो समर्पण
और अभिषार,

जिसने तुम्हे
अपने हृदय के,
हर पृष्ठ पर,
बार बार,
लिख दिया था.

-शिशिर सोमवंशी

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