Monday, May 25, 2015

मैं पा ही लूँगा

मैं पा ही लूँगा 
अपने प्रेम को तुमसे,
अपनी इन्ही रीती 
अंजुरिओं में,
तुम देख लेना।   
मैं भी यहीं रहूँगा  
तुम भी यहीं रहोगे।  

मुस्कुरा रहे हो तुम, 
हमेशा की तरह,
सुन कर 
मेरा अतिरंजित, 
आत्म घोष। 
जब सम्मुख होगे,
मैं अपलक 
तकूँगा तुम्हें निशब्द, 
और तुम्हे सुनाई देगा, 
तुम देख लेना।  
मैं भी यहीं रहूँगा  
तुम भी यहीं रहोगे।  

मुझे तुम्हारी 
इस दृष्टि में, 
अपने लिए 
उमड़ते कौतूहल में ही,
सुख है अतुलित।  
अपनी बाँहों 
को व्यर्थ विस्तार,
नहीं दूँगा,
तुम्हारी अपूर्व 
आभा की ओर।  
ना ही करूँगा , 
कोई भी प्रयास 
तुम्हारी अप्रतिम 
काया की सुगन्धि
को बांधने का , 
प्राप्ति के स्थापित
साँचों में कठोर।  
तुम देख लेना।  
मैं भी यहीं रहूँगा  
तुम भी यहीं रहोगे।  

मुझे बहुत है 
यदा कदा का 
आशातीत संपर्क
अनिश्चित संसर्ग,
तुम्हारे मार्ग पर 
विचरण यूँ ही 
अनायास। 
एक ही समय 
पर एक स्थान पर 
साथ होने भर 
का आभाष।  
तुम देख लेना 
मैं भी यहीं रहूँगा


मैं पा ही लूँगा 
अपने प्रेम को तुमसे,
यथार्थ से उठकर
बिना पाये,
बिना जताये
और बिना बताये
तुम्हारे रंगों को
अपने मन के पन्नों
सोखकर -संजोकर
तुम देख लेना।   
मैं भी यहीं रहूँगा  
तुम भी यहीं रहोगे। 

-शिशिर सोमवंशी 

Wednesday, May 6, 2015

मधुमास की रातें

 ऐसी ही रातें कई 
  चन्द्रिमा में भीगी हुई
 स्नेह से सिंचित
  मेरी उसकी
 मधुमास की रातें।   

 जो सहज संभव थीं 
 और आवश्यक भी,  
 समय ने घटने नहीं दीं,
  होनी ने होने नहीं दीं।  
  नर्म हाथों की चपल
  उंगलियों में मचलती हुई
  कभी गतिमान कभी
 थम के संभलती हुई,
  मुदित स्वरों में  
  झूठे मनुहार की रातें,
 सच्चे आभार की रातें, 
 एक से दूजे मन के 
 मधुर परिहास की रातें।  
 मेरी उसकी
 मधुमास की रातें। 
  
 ऐसी रातों के बाद, 
 अनुमति ले कर 
 सुबह उतरेगी चेहरे पर, 
 उनींदी पलकें खोले,  
 उगती किरणों से वो बोले।
 थोड़ा रुक सको तो 
  ठहरना कुछ पल,
  अभी सोना है मुझे।  
 और लज़्ज़ित सा मैं  
 सकुचता सा
 उस से इतना सा
 मात्र कह पाऊँ।   
 रात मुझ पर बस 
 नहीं चला मेरा-
 पास होकर भी
 दूर रह पाऊँ। 
 सच्चे मन से
 तुम्हारा वादी बन, 
 सुबह से प्रार्थना 
 यह कर लूँगा,
 ऐसे बेबस प्रयास की रातें।
 मेरी उसकी
 मधुमास की रातें।   

  एक दूसरे को 
  बिना बोले निर्निमेष
  तकते रह कर 
 सो जाने की रातें।  
 मैं अधिक देखूँ,
 तुम अधिक निहारो, 
 अंतिम प्रहर तक 
 इस सुखद युद्ध में
 डूबे रहने,
 खो जाने की रातें।  
  नयनों से नयनों के 
 कठिन अभ्यास की रातें।
 मेरी उसकी
 मधुमास की रातें।  

  दूरस्थ अलभ्य रातें, 
 लौट ही आती हैं,
 निस्संकोच अनामंत्रित 
  उस काल खंड के
  किसी मधुर गीत में।
  भूलकर भी स्मृति में,
  धुंधली सी शेष रही,
 उस प्रेम कविता की,
  अंतिम चन्द पंक्तिओं
  के कातर अनुरोध,
 उस अश्रुपूरित अतीत में।
  दुर्लभ व्यतीत में पुन:
 स्वप्निल प्रवास की रातें।
 मेरी उसकी
 मधुमास की रातें।  
                     -शिशिर सोमवंशी