चन्द्रिमा में भीगी हुई
स्नेह से सिंचित
मेरी उसकी
मधुमास की रातें।
जो सहज संभव थीं
और आवश्यक भी,
समय ने घटने नहीं दीं,
होनी ने होने नहीं दीं।
नर्म हाथों की चपल
उंगलियों में मचलती हुई,
कभी गतिमान कभी
थम के संभलती हुई,
मुदित स्वरों में
झूठे मनुहार की रातें,
सच्चे आभार की रातें,
एक से दूजे मन के
मधुर परिहास की रातें।
मेरी उसकी
मधुमास की रातें।
ऐसी रातों के बाद,
अनुमति ले कर
सुबह उतरेगी चेहरे पर,
उनींदी पलकें
खोले,
उगती किरणों से वो बोले।
थोड़ा रुक सको तो
ठहरना कुछ पल,
अभी सोना है मुझे।
और लज़्ज़ित सा मैं
सकुचता सा
उस से इतना सा
मात्र कह पाऊँ।
रात मुझ पर बस
नहीं चला मेरा-
पास होकर भी
दूर रह पाऊँ।
सच्चे मन से
तुम्हारा वादी बन,
सुबह से प्रार्थना
यह कर लूँगा,
ऐसे बेबस प्रयास की रातें।
मेरी उसकी
मधुमास की रातें।
एक दूसरे को
बिना बोले निर्निमेष,
तकते रह कर
सो जाने की रातें।
मैं अधिक देखूँ,
तुम अधिक निहारो,
अंतिम प्रहर तक
इस सुखद युद्ध में
डूबे रहने,
खो जाने की रातें।
नयनों से नयनों के
कठिन अभ्यास की रातें।
मेरी उसकी
मधुमास की रातें।
दूरस्थ अलभ्य रातें,
लौट ही आती हैं,
निस्संकोच अनामंत्रित
उस काल खंड के
किसी मधुर गीत में।
भूलकर भी स्मृति में,
धुंधली सी शेष रही,
उस प्रेम कविता की,
अंतिम चन्द पंक्तिओं
के कातर अनुरोध,
उस अश्रुपूरित अतीत में।
दुर्लभ व्यतीत में पुन:
स्वप्निल प्रवास की रातें।
मेरी उसकी
मधुमास की रातें।
-शिशिर सोमवंशी
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