समझो इसे,
तुम जैसे
सूर्य हो
उत्तरायन का,
पूरे दिन भर
कर्म की अग्नि में
उबल कर।
संध्या होते होते
भटक कर
हार कर
मलिन एवं श्रांत
लौटते हो मेरे
आगोश में
मचल कर।
तुम सही हो-
तुम पुरुष हो।
वहीं
मैं जैसे
रात्रि
हूँ
शिशिर
की,
श्री
विहीन
हिम की
तीव्र
सुइयों
सी
चुभती
हुई।,
तुम्हें
स्वयं में
समाने
देती हूँ
पहल कर।
तुम्हारे
ताप को
शीतल
करने में
किंचित
उष्णता
को पा
जाती हूँ
तुम्हारे
संसर्ग में
जल कर।
मैं गलत
हूँ-
मैं
स्त्री हूँ।
कहीं मेरे और
तुम्हारे मध्य,
भोग की
मर्यादाएं हैं।
तन को
बाँधते हुए
नियम हैं
मन का दमन
करती हुई
वर्जनाएं हैं।
सुविधानुसार
विश्लेषित,
सब कुछ
आपस में
उलझा असपष्ट,
प्रचारित एवं
उपदेशित।
इसमें
तुम और मैं
दोनों गलत हैं।
यह विश्व है।
शिशिर सोमवंशी
ye behtareen hai sir ...
ReplyDeletebhaut mushkil baatein kitni saralta se keh gaye aap..
बहुत आभार
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