Monday, July 20, 2015

अवांछित

मैंने देखीं
वो नाज़ुक उँगलियाँ,
बड़े जतन से
अपनी गृहस्थी की
डोर थामे हुए,
चावलों से कंकड़
अलग करती हुई-
ज़िंदगी की सच्चाई
बता गयीं मुझको।
वांछित और
अवांछित के मध्य
का गहन अंतर
दिखा गयीं मुझको । 

स्थिति, परिस्थिति
और मनःस्थिति
अर्थ-हीन
हो जाती है,
काल की गति
में व्यतीत होकर। 
किसी भी चयन को,
विश्व और परिवेश
स्वीकृति की गरिमा,
सहज ही
दिला देता है।
कौन देखता है
हृदय में कर-बद्ध
उपजे प्रेम का 
मौन अनुरोध,
वह करुण प्रार्थना- 
सुन सको तो सुनो
मुझको भी कभी।
चुन सको तो चुनो
मुझको भी कहीं।
व्यक्ति हो अथवा
उसका समर्पण,
सब धूल की
परतों मे मिला देता है।

एक तो मैं
वैसे ही अपूर्ण
अकुशल, अगढ़ एवं
रस- गुण विहीन।
उस पर अपने 
सामान्य गणों
में सम्मिलित
किया है मुझे
उसने जब से –
संबद्धि और असंबद्धि
की दुस्सह दूरी
झुका गयी मुझको।

शिशिर सोमवंशी

Monday, July 13, 2015

अंधेरे का दर्द

सहने की शक्ति
के चुकते चुकते
अँधेरे पर ही
आसक्ति हुई.
कम से कम
एक रंग तो है
गहरा और पक्का.
उजाले की तरह
रोज़ बदलता
तो नहीं रहता.

मेरा साथ दे दो
इस अशक्ति और
ठहराव के पल,
मेरे अस्तित्व के
बिखराव के पल.
सघन काले बादलों
आकाश पर
उमड़  कर ढांप लो
इस चुभते प्रखर
प्रकाश में
रहा नहीं जाता.
सूर्य के दर्प और
दंभ का प्रदर्शन
सहा नही जाता.
चमक ही सब
कुछ क्यूँ है?
दिखने वाला ही
बिकता क्यूँ है

जो पुष्प हैं
सुगंधित और
लुभावने भी,
सहर्ष अपना
लिए  जाते हैं.
वहीं कुछ काँटे,
नितांत एकाकी,
उन्ही फूलों की
रक्षा करते करते,
सतत तिरस्कार की
पीड़ा को भोगते,
चेहरे पर निर्विकार
भाव लिए,
गुम हो जाते हैं.

दिल डूबता सा
जब लगता है,
और सांस कहती है
बस अब और नहीं.
प्रकाश की
उपेक्षा से
उपजने वाले,
अंधेरे के दर्द का
भान होता है.
तिरस्कृत काँटों के
त्याग और संघर्ष
पर मान होता है.

शिशिर सोमवंशी 

बारिश

कई दिनों के बाद
मौसम बदला.
बहुत देर तक
बरसती रहीं बूँदें.
चलो धरती का
दुख तो  गया.

बाकी सभी बातें
वैसी ही रहीं.
जैसी बरसों
पहले से हैं-
तुम्हारे जाने
के बाद.

वो दिन भी
कुछ अज़ीब
सा था.
उस रोज भी
बुहुत देर तक
बरसी थीं बूँदें-
आँखों से.
और कुछ भीगा
ही नहीं
अहसासों के सिवा...

Sunday, July 12, 2015

औरत

सारी अपेक्षाएं
उसी से क्यों हों?
अकारण वही क्यों
बोले, सुने और
समझे सबको?
संभाले वही क्यों,
जिस पल टूटे कोई,
बिखरे कोई जब.
विश्वास भरती फिरे,
अपने अंतर्मन की
अनेकों पीडाओं
को दबाए हुए तब.


मौन उसका बुरा,
कथन मन का
उलझनें बढ़ाए
अपनी भी,
दुनिया की भी.
आँख भीगे तो,
बंद करनी पड़ें
कस के पलकें,
रुदन फूटे तो
दबाने हों होंठ
एकदम वैसे.

खिला रहे चेहरा
की खिली खिली
चमकती सी,
सजी-सँवरी हुई
चहकती सी
माँगें उसे सब,
चाहें उसे सब

अपने आप से ही
कहते सुनते,
श्रांत, व्यथित,
और एकाकी उसे
अकसर देखा मैनें.
अपने तन की ही
तरह मन को
छुपाकर, ढक कर
एक औरत का जीना
कितना दुष्कर है
ये सोचा मैनें.

शिशिर सोमवंशी