Monday, July 20, 2015

अवांछित

मैंने देखीं
वो नाज़ुक उँगलियाँ,
बड़े जतन से
अपनी गृहस्थी की
डोर थामे हुए,
चावलों से कंकड़
अलग करती हुई-
ज़िंदगी की सच्चाई
बता गयीं मुझको।
वांछित और
अवांछित के मध्य
का गहन अंतर
दिखा गयीं मुझको । 

स्थिति, परिस्थिति
और मनःस्थिति
अर्थ-हीन
हो जाती है,
काल की गति
में व्यतीत होकर। 
किसी भी चयन को,
विश्व और परिवेश
स्वीकृति की गरिमा,
सहज ही
दिला देता है।
कौन देखता है
हृदय में कर-बद्ध
उपजे प्रेम का 
मौन अनुरोध,
वह करुण प्रार्थना- 
सुन सको तो सुनो
मुझको भी कभी।
चुन सको तो चुनो
मुझको भी कहीं।
व्यक्ति हो अथवा
उसका समर्पण,
सब धूल की
परतों मे मिला देता है।

एक तो मैं
वैसे ही अपूर्ण
अकुशल, अगढ़ एवं
रस- गुण विहीन।
उस पर अपने 
सामान्य गणों
में सम्मिलित
किया है मुझे
उसने जब से –
संबद्धि और असंबद्धि
की दुस्सह दूरी
झुका गयी मुझको।

शिशिर सोमवंशी

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