Monday, August 10, 2015

विश्वास की मर्यादा

अपनी प्रकृति मैं कैसे
परिवर्तित कर सकता हूँ?
प्रथम तो मेरा अनायास
परिवर्तन  संभव नहीं,
बिखरी हुई धूल को
गूँथ के नयी प्रतिमा
गढ़ने में समय लगता है।
दूसरे समय ने भी,
किसी पराए की तरह
मुझे कभी छुआ नहीं,
मेरा जीवन पलों और
घड़ियों से गुज़र कर भी
उनकी परिधि का हुआ नहीं।
तुम्हारे विश्वास की मर्यादा
रखने के लिए हो जाना था।
काल के चक्र में मुझ
अकिंचन को खो जाना था। 

यह तो तुम मनोगे ही
तुमसे भेंट,वह प्रेम,यह विरह
एक मधुर संयोग-
एक अनमोल अनुभूति.
किंतु जैसा तुमने कहा
जीवन की क्रूर वास्तविकता,
किसी तरह जी लेने की चेस्टा
में किए व्यावहारिक अपराध 
हर संयोग, हर अनुभव
पर भारी पड़ जाते हैं। 
कोई भी घटना
कोई भी गतिविधि
जब तक वर्तमान की
संज्ञा में बसती है,
भाव-सिंधु उफनता
छलकता रहता है।
अपने निकट के परिवेश  को
सराबोर कर देता है.
पर बीत जाता है वह भी।
बीतना ही निश्चित है,
वर्षों की व्यर्थ छल क्रीडा से
निस्संदेह त्वरित- स्वीकृत 
अंत ही उचित है।
मैं क्यूँ बीता नहीं?
तुम्हारे विश्वास की मर्यादा
रखने के लिए हो जाना था। 
काल के चक्र में मुझ
अकिंचन को खो जाना था।

इतने पर भी मेरा जीवन
दारुन दुखों के  मध्य
यदा कदा परिलक्षित
तथाकथित आह्लाद
से ही परिभाषित होता है।
यह ढीठ मेरे सतत अश्रु-पात
की धाराओं में बहा नहीं।
इसके होने का कोई
विशेष अर्थ नहीं था,
तथापि यह नित नवीन
स्वरूपों में मुझसे
संभाषित होता है।
देह के पोषण और आजीविका
के कठिन उपक्रमों में 
साँसों का टूटना, थम जाना
चाहे से भी स्थायी न हुआ। 
उपेक्षा, तिरस्कार और आघात 
सह कर धराशायी नही हुआ।
तुम्हारे विश्वास की मर्यादा
रखने के लिए हो जाना था।
समय के चक्र में मुझ
अकिंचन को खो जाना था।

     शिशिर सोमवंशी

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