मुझे मेरे प्रेम,
यदि मैं याचक बन
मांग बैठूँ तुमको।
याचना पर दया
भर नहीं करना,
संवेदना भी नहीं,
शब्दों के सहारे
बात को दूसरी
अन्य दिशा दे देना,
अथवा मौन रह
जाना।
मैं तो चाहूँगा ही
तुम्हें सर्वथा
सम्पूर्ण-
आदि से अंत
तक।
नितांत स्वाभाविक
होगा ये आग्रह मेरा,
प्रारब्ध के भोग्य,
जन्म जन्मांतर के
सतत संघर्ष में
जाने कितनी
आकाशगंगाओं में
दिशाओं, दिगंत
और अनंत तक।
कठोर है मेरे प्रति,
किन्तु सत्य
इतना सा है,
हर आहट पर
हृदय के द्वार तो
खोले नहीं जाते।
जो भाग्यशाली
बिना प्रयास,
बिना याचना
तुम्हारे संसर्ग की
विशिष्ट सृष्टि में
उतरे।
आवश्यक है
वह विशेष नाम
तुम्हारे
निजी चयन से उभरे।
शिशिर सोमवंशी
No comments:
Post a Comment