Wednesday, August 19, 2015

उपस्थिति का शुभत्व

शुभ शगुन है वह
ज़िंदगी के लिए,
अपनी उपस्थिति
मात्र के शुभत्व से 
मुझसे कहती हुई- 
तुम भी महत्वपूर्ण हो,
तुम्हारा होना भी
अर्थ रखता है।  

वही जब न हो
ज़िंदगी कुछ और नहीं
दिन भर की
थकन लगती है। 
आँखों में ऊष्णता
साँसों के आरोह
और अवरोह में
घुटन लगती है।
किन्तु इतने पर भी
नींद भरी आँखों में,
पलकों को
बंद करते ही
जिस क्षण वह
नज़र आए ,
तृप्त हो जाती है 
आत्मा की क्षुधा मेरी।

तभी उस से मेरा 
मूक संवाद
फूटता है और
उससे उपकृत हृदय,
उसके आभार और
अपनत्व की अनुभूति
देर रात्रि तक
बिना प्रयास बताता है-
मेरा प्रेम छलक
उठता है रह रह कर
मेरे संदेश में। 
यही कि वो भी 
कितना मूल्य रखती है
सोच के अनछुए
किनारों पर,
जो नितांत मेरे हैं,
इस जन अरण्य में,
हर सामान्य एवं
विशिष्ट परिवेश में। 

सुनकर सब मेरा कहा
वह समझाते हुए
मद्धिम स्वर में
कानों में कहती है
मुझे सब मालूम है,
अब सो जाओ...
सोने दो मुझे।
घनघोर विभा में भी
चाँद का छोटा टुकड़ा
सूरज सा दमक 
उठता जब है। 
थोड़ी सी अपने ऊपर
पूरी उसके ऊपर
हो जाती है श्रद्धा मेरी। 

शिशिर सोमवंशी

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