Sunday, August 23, 2015

रूहानी सफर की हमसफर

मेरी दोस्त
मेरे रूहानी सफर की
बिना शर्त हमसफर
यह भी नहीं
भूलना कभी
मेरा प्यार भी तुम्हीं हो।












मेरे हौसलों की परवाज़
मेरे ख्वाबों की ताबीर
मेरे खुद से किए वादों
बदसूरत ज़िंदगी के
चंद खूबसूरत इरादों,
की जीत तुम हो,
उनकी हार भी तुम्हीं हो।

अपनी मजबूरियों का
वास्ता दे कर,
मेरे लिए कोई
सुनहरा सा
रास्ता दे कर,
दूर अपने से मुझको
जो करना चाहोगी,
एक सिसकते हुए,
उदास बच्चे को
याद कर लेना,
मुझे बस वहीं
पास कहीं पाओगी ।

शिशिर सोमवंशी 

कलाम: कवि का प्रणाम

अभावों में जीवन के प्रति
उपजी अदम्य श्रद्धा,
असीम आत्मबल एवं
सतत निर्विकार कर्मठता,
उत्तरोत्तर उत्तमता हेतु
व्यक्ति का जीवंत समर्पण।
 
ज्ञान की अविरत पिपासा,
चिंतन का अतुल्य विस्तार,
प्रेरणा, उत्साह, स्वप्नों का
दिग दिगंत मे संचार।
 
अपनी धरा से प्राप्त
हर अंश का प्रतिफल,
कर्म योग से रची,
यशस्वी गहरी रेखाएँ,  
आकाश का विस्तृत पटल,
भूमि से ग्रहण,
सर्वस्व उसी को अर्पण।

लेखनी करों में रुकी ठहरी
प्रतीक्षा में रह गयी मेरी,
सोच की समस्त गतियाँ
मुझसे ये कह गई मेरी।
 
एक अद्वितीय जीवन
को आदरांजली दूँ, 
अथवा महान प्रयाण को।
देर तक कुछ नहीं सूझा,
कागज़ को सादा रख 
मध्य कोष्टक में मात्र,
एक नाम लिख दिया-
मैंने 'कलाम' लिख दिया।   

शिशिर सोमवंशी

 

Saturday, August 22, 2015

अपनी मित्रता

इतनी भी खूबसूरत नहीं,
यह ज़िंदगी,
जितनी तुम जताते हो।
मधुर स्वर में
सत्यता का,
छद्म आवरण पहने 
अपनी तुच्छता
की ही तुष्टि करती
तुम्हारे हित की
बात नहीं जो
अवसर मिलते ही 
तीव्रता से दोहराते हो । 

या धुएँ का
यह अर्थहीन छल्ला-
जो तुमने हवा
मे रचा है अभी।
वैसे ही जैसे
कुशलता से रच लेते हो,
अपने अनुमानों से
दूसरे का चरित्र।
बिना समझे सर्वस्व
समझ जाने का
यह ढोंग मेरे मित्र,
कैसे कर जाते हो?

कई बार आक्षेप, 
उतना द्रवित एवं
विचलित नहीं करते,
जितना यह कि
कहने वाला कौन था।
जब अनुपस्थिति में,
किसी आरोप ने
मुंह खोला तब,
किसका प्रतिवाद हुआ,
कौन सुनकर मौन था।

अंतिम शब्द तक,
कह के, सुन के,
अंतिम सीमा तक
अपने कल्पित
ताने बाने बुन के, 
अंतरात्मा को इतना
निर्मल और निर्भय
कैसे रख पाते हो?

ज़िंदगी हमारे अहम,
हमारे सस्तेपन से
मान नहीं जाती।  
बस लगता है हमे
ऐसा कई बार।
आज के बाद,
जब मिलो इससे
इतना सोचो कि
तुम ज़िंदा हो इसमे,
ये तुम में नहीं.

मुझसे मिलने
तुम चले आना,
पहले की तरह,
मुझे पता है
बहुत पहले से-
यह मित्रता,
यह जुड़ाव और
अपनापे का भाव
मुझसे है
ये तुमसे नही।  

मैं मान जाऊंगा
पुनः वह मोहक
मुस्कान और वही
अतिरिक्त मिठास
वाणी की लेते आना,
जो तुम सहज ही
संग ले आते हो। 

शिशिर सोमवंशी

वह अद्भुत पल

आज उस एक
अद्भुत पल के बाद,
हुआ क्या विशेष है,
वो मुझे और भी
सुंदर लगने लगा। 

स्मृतियाँ उसकी
पहले भी अभिराम थीं,
हमेशा से ही-
मधुरिम छवियों में जीवंत ।
हृदय के अभिलेखों में
तीव्रता से अंकित ,
स्वास के स्वरों में
छंद और ताल से रसवंत ।
आज उस एक
अद्भुत पल के बाद,
हुआ क्या विशेष है,
वो मुझे उन स्मृतियों से
बेहतर लगने लगा। 

यूं भी होता है
जीवन में कदाचित ,
एक क्षण उस से भी
भव्य हो जाता है।
मैंने जिया वही क्षण,
उसके स्नेह से रंजित । 
सानिध्य से ओत प्रोत,
उसकी विलक्षण कल्पना
उसके द्वारा रचित  एवं
उस से ही परिभाषित ।
आज उस एक
अद्भुत पल के बाद,
हुआ क्या विशेष है,
वह छूटा हुआ रास्ता,
पुनः मुझे जागृत 
स्वप्नों का स्वर्णिम
नगर लगने लगा।

शिशिर सोमवंशी
 

Wednesday, August 19, 2015

तुम्हारा चयन

क्षमा करना
मुझे मेरे प्रेम,
यदि मैं याचक बन
मांग बैठूँ तुमको।
याचना पर दया
भर नहीं करना,
संवेदना भी नहीं,
शब्दों के सहारे
बात को दूसरी
अन्य दिशा दे देना, 
अथवा मौन रह जाना। 

मैं तो चाहूँगा ही
तुम्हें सर्वथा सम्पूर्ण-
आदि से अंत तक। 
नितांत स्वाभाविक
होगा ये आग्रह मेरा,
प्रारब्ध के भोग्य,
जन्म जन्मांतर के
सतत संघर्ष में
जाने कितनी
आकाशगंगाओं में
दिशाओं, दिगंत
और अनंत तक।

कठोर है मेरे प्रति,
किन्तु सत्य
इतना सा है,
हर आहट पर
हृदय के द्वार तो
खोले नहीं जाते।
जो भाग्यशाली
बिना प्रयास,
बिना याचना
तुम्हारे संसर्ग की
विशिष्ट सृष्टि में उतरे।
आवश्यक है
वह विशेष नाम तुम्हारे
निजी चयन से उभरे।
      शिशिर सोमवंशी

उपस्थिति का शुभत्व

शुभ शगुन है वह
ज़िंदगी के लिए,
अपनी उपस्थिति
मात्र के शुभत्व से 
मुझसे कहती हुई- 
तुम भी महत्वपूर्ण हो,
तुम्हारा होना भी
अर्थ रखता है।  

वही जब न हो
ज़िंदगी कुछ और नहीं
दिन भर की
थकन लगती है। 
आँखों में ऊष्णता
साँसों के आरोह
और अवरोह में
घुटन लगती है।
किन्तु इतने पर भी
नींद भरी आँखों में,
पलकों को
बंद करते ही
जिस क्षण वह
नज़र आए ,
तृप्त हो जाती है 
आत्मा की क्षुधा मेरी।

तभी उस से मेरा 
मूक संवाद
फूटता है और
उससे उपकृत हृदय,
उसके आभार और
अपनत्व की अनुभूति
देर रात्रि तक
बिना प्रयास बताता है-
मेरा प्रेम छलक
उठता है रह रह कर
मेरे संदेश में। 
यही कि वो भी 
कितना मूल्य रखती है
सोच के अनछुए
किनारों पर,
जो नितांत मेरे हैं,
इस जन अरण्य में,
हर सामान्य एवं
विशिष्ट परिवेश में। 

सुनकर सब मेरा कहा
वह समझाते हुए
मद्धिम स्वर में
कानों में कहती है
मुझे सब मालूम है,
अब सो जाओ...
सोने दो मुझे।
घनघोर विभा में भी
चाँद का छोटा टुकड़ा
सूरज सा दमक 
उठता जब है। 
थोड़ी सी अपने ऊपर
पूरी उसके ऊपर
हो जाती है श्रद्धा मेरी। 

शिशिर सोमवंशी