उन सुगंधित पन्नों
स्याही के छींटों का
यह विनम्र अनुरोध
स्वीकार कर लो-
यदि तुम वही हो
जो तुम्हारा नाम है।
क्षमा
करो किन्तु
यह नाम
विशेष
इसकी
ध्वनि अब
व्यथित
करती है हमें
गूँज
कर बारंबार
कुछ
बिखरे हुए
छंदों
में से,
अनेकों
अनगढ़े
गीतों
के बोलों से।
संभव हो सके
तुमसे तो
मिलो उसे
जो तुम्हारे लिए
नहीं लिखता -
तुमको लिखा
करता है ।
तुम्हें देखने से
कोई भी
सहजता से
यह जान लेता है
अंजुरी में अद्भुत
शब्दों को भर भर
जिस चित्र को वह
रचा करता है
वह तुम्हीं हो
बस तुम नहीं
समझे कभी या
समझना चाहते नहीं।
एक बार
चले आओ
समीप
उसके ,
बिना
किसी
भाव
एवं भावना
के वश
में हुए-
दया से
नहीं
अतिरेक
से नहीं ,
स्नेह
या स्वीकृति
को भी
नहीं ,
सत्य
से परिचय,
वस्तुस्थिति
और
वास्तविकता
का
बोध
कराने वाली
मनः स्थिति
में
उलझे बिना
स्वयं से मिलने ।
कोने में पड़ी
मेज के पास
अपनी पदचाप
का स्वर दबा
कांधे के ऊपर से
झाँक कर
देखो वहाँ
उसको –
वो कलम से
तुम्हारा ही चित्र
गढ़ता हुआ
वहाँ न कवि है
न कोई रचयिता
बस एक बिछड़ा
हुआ नकलची
मित्र है तुम्हारा-
आओ उसका
नाम ले कर
चौंका दो उसको।
क्या जाने
हो जाए उसका।
शिशिर सोमवंशी
बेहद खूबसूरत।
ReplyDelete"क्या जाने कोई गीत पूर्ण हो जाए "
वाह अंतिम
पंक्तियाँ दिल जीत ले गईं।
धन्यवाद राहुल।और भी है ब्लॉग पर आपके लिए।
ReplyDeleteधन्यवाद राहुल।और भी है ब्लॉग पर आपके लिए।
ReplyDeleteबेहद खूबसूरत
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