Friday, September 11, 2015

माँ क्या हुआ था ?

माँ क्या हुआ था
मेरी पैदाइश के रोज़?
क्या सूरज का ताप
अपनी निर्दयता की
सीमा लांघ गया था-
जो मेरा रंग
इतना दब गया
कि कोई उबटन उसे
दमका न सका,
और तू भी झुलसी
मैं भी झुलसा
मेरे  सांवलेपन की
आग में सारा जीवन।  

माँ क्या हुआ था
मेरी पैदाइश के रोज़?
क्या बादलों ने हठ
कर लिया था
कि रुकेंगे नहीं
डुबो देंगे  नगर सारा।
जो मेरी आँखों में
बरसात रुकती ही नहीं
और तू भी भीगी
मैं भी भीगा
मेरे दुख की
वर्षा में सारा जीवन

माँ क्या हुआ था
मेरी पैदाइश के रोज़?
ज़रूर रही होगी
कोई उथल पुथल
अनिश्चितता  कोई।
किसी त्रासदी का
काल था
अथवा युद्ध का
लड़ते  रहे
मैं भी ,तू भी
नियति  से लड़ाई
सारा जीवन ।

माँ क्या हुआ था
मेरी पैदाइश के रोज़?
क्या तू अकेली थी
पीड़ा के क्षण में
सृष्टि के रण में ।
जो मेरे समीप
कोई नहीं आया ,
मुझे समझा न
मुझे छू पाया।
तेरी तनहाई को
मैंने भी जिया
सारा जीवन।

माँ क्या हुआ था
मेरी पैदाइश के रोज़?
अंतिम बार घर से
निकली तो क्या
मंदिर के
देव पूजना  
भूल गयी थी तू
सारे देव तुझसे
मुझसे रूठ  गए
इतने ज्यादा,
और मुझसे
मनाए न गए  
सारा जीवन ।

शिशिर सोमवंशी

Thursday, September 10, 2015

वैदेही

हे प्रेम
तुम्हारी नियति
वैदेही की ही
क्यूँ कर होती है ,
जिसे सतत,
अनवरत
अग्निपरीक्षा का
दुष्कर ताप
सहना पड़ता है,
बार बार स्वयं
को सिद्ध करना
और सफल होने
के उपरांत भी
जाना होता है
अपने प्रिय के
जीवन से
अपनत्व भरी दृष्टि
और कर्णप्रिय स्वर
की परिधि से परे
निर्वासित हो कर। 

वह प्रियतम 
मिथ्या से रची हुई
कुटिल स्वार्थमय
मर्यादा की तुष्टि
के लिए,
व्यवस्था पोषी
राम बन कर
तुम्हारे अस्तित्व,
समर्पण और
श्रद्धा की
पवित्रता को
एकांतवास पर
बाध्य कर देता है।
वही विद्रोही
कृष्ण बनकर
तुमको स्वीकार कर 
अंगीकार कर
स्थापित क्यूं
नहीं  करता
नवपरिभाषित
स्नेहिल मर्यादा के
सर्वोच्च  शिखर पर।


             शिशिर सोमवंशी