Wednesday, July 27, 2011

तुम और मैं


वो भी तुम्ही हो/
ग्रीष्म की/
तप्त दोपहर/
जो बीतते बीतते/
देर तक ठहरी/
बिना आमंत्रण अनायास/
चुपके से चली आई/
और शीतल कर गयी/
वो सांझ-
तुम्ही हो.

चमक कर/
फैली हुई/ये धूप/
तुम्ही हो/
झिझक कर/
सिमट गयी/
थी जो रात.

तुम्ही हो/
हर रंग/
हर घटना/हर मौसम;
मेरा बसंत भी/
शिशिर भी/
मेरी भटकन/
मेरी मुक्ति;
अतीत, व्यतीत/
और वर्तमान/
मुझमे घुला/
सब रस/
मुझसे बँधी/ हर बात.

तुम्ही सब कुछ हो-
मैं तो बस/
वो समय हूँ;
जो तुम्हे छू कर
यूँ ही निकल गया;
क्यूँ कहते हो कि-
मैं बदल गया.

शिशिर सोमवंशी

Sunday, July 24, 2011

सोमवार का स्वर

कई बार खोने मे,
प्राप्ति सा सुख होता है.
बहुत बार पा कर भी,
तृप्ति का आनंद नही.

वचन जब शब्द हों-
वार्ता औपचारिकता.
मिलना एक रस्म सा,
बिछड़ना भाव-विहीन.
आँखें देख लेती हैं-
जाने क्या क्या.
दिल से नही कहतीं-
कि दुखी होगा नासमझ.
संजोता है संबंध
परखता नहीं.

मैं लौट आया हूँ;
नीरव एकांत के दिनों से,
छला जा कर,
चुपचाप उसी मेले मे,
गुम हो जाने को.
जिसमे अपनी भी
झलक मिलती नहीं.

मैं सुखी हूँ-
कि मैं यहाँ हूँ-
इस सब के बीच,
जीवन के छोटे छोटे
सुखों मे सिमट के-
और व्यर्थ के दुखों को,
पोस कर, सहेज कर.
खुश हूँ कि ज़िंदा हूँ-
ऐसी ज़िंदगी तो
सब को मिलती नही.

-शिशिर सोमवंशी