Sunday, December 21, 2014

यही प्रेम है

अपरिचित झलकियों में
स्वत: पनपते,
स्नेह के मौन संबंध.
प्राप्ति की संकल्पना,
व्यावहारिकता की
मटमैली धूल से
सर्वथा वंचित.
कहाँ चितवन बँधे,
कहाँ सांस थमे,
समझ की विस्तृत,
परिधि से बाहर.
ना ही विज्ञान,
ना ही कोई गणित.
मौका ही नही दिया
तुमने उस दिन,
जिस दिन धूप मे
अलग ही चमक थी
और नमी भी.
जिस दिन हवा
बहते बहते रुक
सी गयी थी,
हमारे आस पास.
मैं भी वही कहता
जो हवा ने कहा था-
समझती क्यूँ नहीं
यही प्रेम है,
तुम्हारा अपना.

मैं नहीं था
मेरा नाम ही था,
जो तुमसे पूरा
लिखा ना गया,
काग़ज़ पर.
काँपते हाथों से
शेष रहा जिसका
बस पहला अक्षर.
अधूरा रह के भी
संपूर्ण है-
सबसे ऊपर.
भूलने पर भी,
उकर आया है.
खूब तीखा और
बहुत गहरा.
हृदय के सबसे
निज़ी हिस्से पर.
जिसे अब तक
किसी और ने
देखा भी नहीं
तुमने ही देखा
स्मित भाव से.
अनुराग से,
अपनत्व से,
बड़े चाव से-
यही प्रेम है,
हमारा अपना.

शिशिर की बोझिल
एकाकी रातों मे
बिना निमंत्रण.
आ जाता है,
तुम्हारे तकिये
के नीचे छुप कर
पनाह लेता है,
गर्म गीली साँसों मे
तुम्हारे पास.
जिसे ढूँढते हैं
सुबह तुम्हारे
सबसे कोमल
सबसे सुंदर हाथ.
अपने केशों में
अपने माथे पर-
अलसाए अनायास.
वही प्रेम है,
तुम्हारा सपना.

-शिशिर सोमवंशी 

Saturday, December 13, 2014

क्यूँ तुम्हे याद नहीं?

हर पल दूर होते,
अतीत की
जिस सुनहरी
छाया को,
मैने समेटना चाहा,
तुम्ही थे;
और कोई नहीं.

और कोई होता,
भी कहाँ और कैसे?
किसी की जगह,
ही नही थी.
किसी ज़िंदगी की.
ना इंसान की,
ना ही ख़ुदा की.

मैने कुछ भी,
देखा  नही,
सुना नही.
ना ही धरती का
कोई वजूद था,
ना आसमान का ही,
ना किसी मौसम का.

खूबसूरती रही होगी.
नगर सुंदर था,
लोग कहते हैं,
मुझे नही पता.
ना किसी हवा मे,
इतनी ताक़त थी.
मुझे मोड़ ले,
अपनी तरफ.

हर ओर बस,
तुम ही रहे,
तुम्ही तुम.
तुममे क्या है?
पूछा मुझसे सबने-
दुनिया को जाने,
क्या फ़िक़र थी.
रूठ कर,
बिफर कर,
लताओं ने रार से,
लिपट कर मुझसे.

मुझे खुद होश नही,
तुममे क्या था.
जिसने मुझे,
बाँध लिया.
उन लताओं से,
ज़्यादा कसकर.
मौसमों, बादलों
और हवाओं से,
जो ना हो सका,
तुमसे हुआ.
तुम्हारे साथ
होने पर और,
कौन होता?
जब मैं-
ख़ुद मैं ही
खो गया.

उजाले के जैसे
मुझको सजाते हुए
उभर कर,
संवर कर,
निखर कर.
अपनी अनोखी,
आँखों की,
चमक के साथ.
पता ही नही चला.
कब मैं अतीत 
और तुम,
भविष्य हो गये.

ये भी पता
नही चला कि,
कब तुम्हारे लिए,
सर्वथा साधारण,
महत्वहीन,
घटनाविहीन,
तुम्हारा अतीत,
जो तुम्हे अब,
ज़रा सा भी,
याद नहीं,
मेरी पूँजी,
मेरी नियति,
मेरा वर्तमान,
हो गया.

और मैं-
उन बादलों से,
उन हवाओं से.
उन मौसमों,
और लताओं से.
जिन्हे मैने कभी,
देखा ही नहीं.
सुना नहीं,
समझा और,
महसूस ही,
किया नही.
पूछता हूँ पागल.
सुनो तुम्हे तो,
याद होगा?
उसे तो कुछ भी
याद नहीं.
शिशिर सोमवंशी

Friday, December 5, 2014

तुम दोगे?

इस अंतहीन प्रतीक्षा,
मे कसमसाता,
मेरा आग्रह
उकता रहा है.
संभव है,  
कोई भूल
हो जाए मुझसे.

जितना रोको,
उद्दंड बच्चे सा,
कमर पर,
हाथ टिकाए.
मेरी आँखों में,
दृष्टि गड़ाए.
बोलता है-
अब मेरी बारी
आनी चाहिए.
अंबर पर विचरते
बादलों पे चलने की.
जब जी करे,
जहाँ मैं चाहूँ,
उनसा पिघल कर
अंतिम बूँद तक
बरस जाने की.

चुकने से पहले,
धारा बनके तुम्हारी
अप्रतिम काया पर
बह जाने की.
गुनगुनी धूप मे
नम वाष्प सा
सूख कर
तुम्हारी सुगंध
समेटे हवा मे
बिखर जाने की.

मुझे भी तो
मिलना चाहिए
मेरा हिस्सा-
धूप का
नमी का.
अपनत्व,
स्नेह और
सानिध्य का.
तुम दोगे?
उसको,
मुझको,
हम दोनों को.
            -शिशिर सोमवंशी

Monday, December 1, 2014

समय मुझे देना नहीं

लो बीत गया,  
और एक दिन,
बिना देखे तुम्हें,
बिना सुने तुमको.
नया कुछ भी नहीं.
डूबती शाम के,
सायों में, 
पुनः उदास हूँ,
किंतु अपराजित.
विकट जीवट है,
ढीठ है,
मेरा प्रेम,
इसकी जिजीविषा.

अग्नि इसकी,
शीतल होती नही.
मंद पड़ती नही.
कितना बल लगाए,
विरह-शर्वरी  की,
निष्ठुर शीत में,
एकांत के दस्युओं,
की निर्मम दुर्दशा. 

काँपते पत्ते पर,
थमी सहमी,
ओस की अकिंचन,
बूँद का सा-
अपना यह संबंध.
मुझसे नही है,
तुमसे है,
तुम्हारे होने से.
जानता हूँ,
जानकर भी,
बरबस  लगता है.
इसमे ज़रा सा,
मेरा भी है-
तुम्हारे बाद.

साथ-साथ,
न चलने भर से,
छूट जाता,
नही साथ.
चाहे से भी,  
मरती नहीं भावनाए.
तुम्हारे अघोषित,
मौन सी सहसा-
समय लगता है.
मुझे कुछ ना दो,
माँगूंगा नहीं,
बस इतना अनुरोध,
वो समय-
मुझे देना नहीं.


-शिशिर सोमवंशी

Tuesday, November 25, 2014

जाने दिया

मुझसे,
मेरे अस्तित्व,
मेरी आत्मघाती
प्रवृत्ति से
लड़ती, जूझती
विद्रोह करती
जो अंतिम
स्वास थी.
उसे भी
परास्त कर
ही दिया मैने-
जाने दिया.
हाँ सच ही
कहते हो तुम
सब होने पर भी
तुमसे बना नहीं.

मुझसे होता नहीं
बिखर जाता है
रीत जाता है
मेरी उंगलियों
के बीच से
हाथ आता नहीं.
बीत जाता है
सुख दूरी से
साथ आता नहीं.
अथाह चाह से
क्या होना था
क्या हुआ?
जाने दिया.
हाँ सच ही
कहते हैं सब.
मुझसे हुआ नहीं
मुझसे बना नहीं.

रेंगता रहा
इस तरह
जीवन  का
नीरस चलचित्र.
कथानक और
संवाद मे
किसी से
कोई आग्रह
कोई अनुरोध
चाह कर भी
किया नहीं.
बस चलने दिया
जाने दिया.
सच ही कहता हूँ
तुमसे परे इसमे
कुछ रहा नहीं
कुछ बना नहीं.

मन भी किसी
शत्रु सा
पथिक ही बनने
की हठ किए-
लंबे, उलझे
अपरिचित रास्तों
मे भटकता रहा.
गंतव्य के
मोहपाश में
बँधा नहीं.
हर बस्ती को
हर गाँव
हर नगर को
गुजरने दिया
जाने दिया.
सच ही कहते हैं
रास्तों के चिन्ह
कौन है यह
क्यों कहीं रुका नहीं
कहीं थमा नहीं.

बार बार
जीता रहा,
रंगमंच पर
उसी पात्र को
जिससे कभी
कुछ संभला नहीं.
वही अधूरे भाव,
वही अनमने शब्द,
आत्म-श्रद्धा
से रहित-
अधिकार की
शक्ति से वंचित.
सामर्थ्य ही नही
जिसमें
रोक लेने की
अनुरोध कर
मना लेने की.
क्या किया?
जाने दिया.
सच ही कहते थे तुम
सामने रह कर भी
तुमने कहा नही.
तुमसे बना नहीं.


- शिशिर सोमवंशी

Tuesday, November 18, 2014

मैंने तुम्हे मुक्त किया

मैंने तुम्हे मुक्त किया
मेरे प्रिय, मेरे मित्र,
मेरे जीवन.
मेरी अवस्था
मेरी गति की,
तुम मत सोचना
दुख होगा.
तुम्हे दुख हो जिस मे
उसमे क्या-
मुझे सुख होगा?
इतना जान लो
किसी को बंधन
से मुक्ति चाहिए
किसी को इन्ही
बंधनो मे मुक्ति.

तुमने कहा
विस्मृत कर दो,
स्मृतियाँ बाँधती हैं.
तुमने कहा
स्मित, उत्साहित,
मुखरित बनो.
मैने कहा कर लूँगा,
जो कहोगे
जैसा कहोगे.
मेरे लिए तुम्हारा
कहना ही बहुत.

मैंने सुना, सारा सुना
तुम्हारा कथन-
श्रद्धा से,
आभार से.
आख़िर तुमने भी
कहा स्नेह से,
अधिकार से.
मेरे मीत, सखा मेरे
मेरे प्रति
तुम्हारी सदभावना,
मेरे आज के लिए
मेरे शांत
उन्नत और परिपूर्ण
कल के लिए,
तुम्हारी व्यथा,
तुम्हारा चिंतन,
मुझसे सहा नही जाता.
अतः मुक्त किया तुम्हे,
तुम्हारी पीड़ा से -
अपराध-बोध से.
मेरी पीड़ा
मेरे भीति की
तुम मत सोचना.
आवश्यक है-
किसी के लिए
बोध से मुक्ति
किसी को इसी अपराध
इसी लोभ मे मुक्ति है.

मुझे निशक्त नही
देख सकते तुम,
वैसे ही तुम्हे व्यथित, 
नही देख पाता मैं.
देखी नहीं जाती,
तुम्हारी अतीत को,
भाग्य की निष्ठुरता
सही सिद्ध करने की
निष्फल चेष्टा.
नही सही जाती
वर्तमान को मर्यादित
करने की असफलता.
इस अंतर-विरोध
इस दुरूह द्वंद से
मुक्त किया तुमको.
मेरे द्वंद की
मेरी अनुभूति की
तुम मत सोचना.
सब उचित है-
किसी को द्वंद से
मुक्ति चाहिए-
किसी को इस
सुमधुर अलौकिक 
द्वंद मे मुक्ति है.

 - शिशिर सोमवंशी 

Wednesday, November 12, 2014

मेरा समर्पण

आसक्ति नहीं है
मुझे तुम पर
तुम्हारी प्रकृति पर
अटूट आस्था है.
मुझे यह प्रतीति
सर्वदा है-
मेरी मुक्ति का
मार्ग तुमसे है.
तुम्हारे अंदर ही
मेरा मोक्ष- मेरा निर्वाण.
मेरे अंतर्मन से
बार बार कोई कहता है.

मुझे भान है,
मैं एक ऐसा
युद्ध लड़ रहा हूँ,
जिसमें विजय
दुष्कर है.
मुझे इस से क्या?
इस से मेरे प्रयास
की सार्थकता
कम नहीं हो जाती.
इस से लघुता
तो नहीं पाता
मेरे समर्पण का मान.
बली होता जाता है
जितनी चोट सहता है.

चलो कस लो मुझे
नित नवीन
चिर कठिन
कसौटियों ओर
अपने उन्नत आदर्श
मानदंडों पर.
वर्षों हुए तुम
कुछ भी सीखे नहीं
समझे नहीं
परिहास मे,
उपहास मे और
बिछोह के संत्रास मे,
विपरीत परिस्थियों
के प्रभावों मे-
स्वीकृति और
स्वीकारोक्ति के
अभावों मे
मध्य की अनचाही
अपरिचित दूरियों
के दबावों में-
नही घुटते हैं प्रेम के प्राण.
बहुत जीवन है इसमे
जीवित रहता है.

-शिशिर सोमवंशी

Tuesday, November 4, 2014

पाप तुमने किया नहीं

उस रूप पर मेरी आसक्ति,
उन आँखों पर मेरी आस्था-
मेरे अनुरोध की प्रबलता
मेरे आग्रह की मुखरता
मेरे समर्पण की
यह छोटी सी विजय
बस एक बार हारा जिससे
तुम्हारे अंतर का भय
प्रेम पर तुम्हारा संशय.
पुण्य मुझसे विलग रहा नहीं,
पाप तुमने कोई किया नहीं.

अपने प्रारब्ध के अपराध का,
मेरे उलझे हुए संवाद का
तुम्हारी दुरूह मन:स्थिति
पनपते भ्रम की पीड़ा-
पास रहते हुए प्रतिवाद का
मैने पहले भी मान रखा था
तुमने अच्छे से ध्यान रखा था.
पुण्य हमसे विलग रहा नहीं,
पाप तुमने कोई किया नहीं.

शेष इतने पे भी बचा जो है
रंग गहरा सा ये रचा जो है
मैने ये स्वप्न सा बुना जो है
मध्य अपने ये हुआ जो है-
तुमने बरबस मुझे छुआ जो है
एक दिन मन को तो पिघलना था.
पुण्य हमसे विलग रहा नहीं,
पाप तुमने कोई किया नहीं.

और ज़्यादा अभी हुआ क्या है?
छीन के तुमसे लिया क्या है?
एक आधा सा स्नेह आलिंगन,
मेरे अधरों की सतत प्रत्याशा,
बीते सदियों से पल रही आशा
अब भी वैसी है वहीं पर ठहरी,
लोभ वैसा ही है वहीं प्यासा.
भाग्य मेरा अलग रहा नही
पाप तुमने कोई किया नहीं. 

       -शिशिर सोमवंशी