Tuesday, November 25, 2014

जाने दिया

मुझसे,
मेरे अस्तित्व,
मेरी आत्मघाती
प्रवृत्ति से
लड़ती, जूझती
विद्रोह करती
जो अंतिम
स्वास थी.
उसे भी
परास्त कर
ही दिया मैने-
जाने दिया.
हाँ सच ही
कहते हो तुम
सब होने पर भी
तुमसे बना नहीं.

मुझसे होता नहीं
बिखर जाता है
रीत जाता है
मेरी उंगलियों
के बीच से
हाथ आता नहीं.
बीत जाता है
सुख दूरी से
साथ आता नहीं.
अथाह चाह से
क्या होना था
क्या हुआ?
जाने दिया.
हाँ सच ही
कहते हैं सब.
मुझसे हुआ नहीं
मुझसे बना नहीं.

रेंगता रहा
इस तरह
जीवन  का
नीरस चलचित्र.
कथानक और
संवाद मे
किसी से
कोई आग्रह
कोई अनुरोध
चाह कर भी
किया नहीं.
बस चलने दिया
जाने दिया.
सच ही कहता हूँ
तुमसे परे इसमे
कुछ रहा नहीं
कुछ बना नहीं.

मन भी किसी
शत्रु सा
पथिक ही बनने
की हठ किए-
लंबे, उलझे
अपरिचित रास्तों
मे भटकता रहा.
गंतव्य के
मोहपाश में
बँधा नहीं.
हर बस्ती को
हर गाँव
हर नगर को
गुजरने दिया
जाने दिया.
सच ही कहते हैं
रास्तों के चिन्ह
कौन है यह
क्यों कहीं रुका नहीं
कहीं थमा नहीं.

बार बार
जीता रहा,
रंगमंच पर
उसी पात्र को
जिससे कभी
कुछ संभला नहीं.
वही अधूरे भाव,
वही अनमने शब्द,
आत्म-श्रद्धा
से रहित-
अधिकार की
शक्ति से वंचित.
सामर्थ्य ही नही
जिसमें
रोक लेने की
अनुरोध कर
मना लेने की.
क्या किया?
जाने दिया.
सच ही कहते थे तुम
सामने रह कर भी
तुमने कहा नही.
तुमसे बना नहीं.


- शिशिर सोमवंशी

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