Wednesday, November 12, 2014

मेरा समर्पण

आसक्ति नहीं है
मुझे तुम पर
तुम्हारी प्रकृति पर
अटूट आस्था है.
मुझे यह प्रतीति
सर्वदा है-
मेरी मुक्ति का
मार्ग तुमसे है.
तुम्हारे अंदर ही
मेरा मोक्ष- मेरा निर्वाण.
मेरे अंतर्मन से
बार बार कोई कहता है.

मुझे भान है,
मैं एक ऐसा
युद्ध लड़ रहा हूँ,
जिसमें विजय
दुष्कर है.
मुझे इस से क्या?
इस से मेरे प्रयास
की सार्थकता
कम नहीं हो जाती.
इस से लघुता
तो नहीं पाता
मेरे समर्पण का मान.
बली होता जाता है
जितनी चोट सहता है.

चलो कस लो मुझे
नित नवीन
चिर कठिन
कसौटियों ओर
अपने उन्नत आदर्श
मानदंडों पर.
वर्षों हुए तुम
कुछ भी सीखे नहीं
समझे नहीं
परिहास मे,
उपहास मे और
बिछोह के संत्रास मे,
विपरीत परिस्थियों
के प्रभावों मे-
स्वीकृति और
स्वीकारोक्ति के
अभावों मे
मध्य की अनचाही
अपरिचित दूरियों
के दबावों में-
नही घुटते हैं प्रेम के प्राण.
बहुत जीवन है इसमे
जीवित रहता है.

-शिशिर सोमवंशी

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