Tuesday, November 4, 2014

पाप तुमने किया नहीं

उस रूप पर मेरी आसक्ति,
उन आँखों पर मेरी आस्था-
मेरे अनुरोध की प्रबलता
मेरे आग्रह की मुखरता
मेरे समर्पण की
यह छोटी सी विजय
बस एक बार हारा जिससे
तुम्हारे अंतर का भय
प्रेम पर तुम्हारा संशय.
पुण्य मुझसे विलग रहा नहीं,
पाप तुमने कोई किया नहीं.

अपने प्रारब्ध के अपराध का,
मेरे उलझे हुए संवाद का
तुम्हारी दुरूह मन:स्थिति
पनपते भ्रम की पीड़ा-
पास रहते हुए प्रतिवाद का
मैने पहले भी मान रखा था
तुमने अच्छे से ध्यान रखा था.
पुण्य हमसे विलग रहा नहीं,
पाप तुमने कोई किया नहीं.

शेष इतने पे भी बचा जो है
रंग गहरा सा ये रचा जो है
मैने ये स्वप्न सा बुना जो है
मध्य अपने ये हुआ जो है-
तुमने बरबस मुझे छुआ जो है
एक दिन मन को तो पिघलना था.
पुण्य हमसे विलग रहा नहीं,
पाप तुमने कोई किया नहीं.

और ज़्यादा अभी हुआ क्या है?
छीन के तुमसे लिया क्या है?
एक आधा सा स्नेह आलिंगन,
मेरे अधरों की सतत प्रत्याशा,
बीते सदियों से पल रही आशा
अब भी वैसी है वहीं पर ठहरी,
लोभ वैसा ही है वहीं प्यासा.
भाग्य मेरा अलग रहा नही
पाप तुमने कोई किया नहीं. 

       -शिशिर सोमवंशी

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