मैं
बढ़ना चाहता हूँ
बढ़ूंगा
नहीं........
उस
स्पर्श से,
उसकी
कोमलता से.
सीमित
रहूँगा
तुम्हारे
बालों की लट
की
चंचलता और
सुगंध
तक ही.
तुम
कहोगी-
नही
हो पाएगा,
ऐसा
होता नही.
मुश्किल
है
बहुत
मुश्किल होगा.
मैं
कहता हूँ-
आसान
रहा क्या
मेरे
लिए?
सब
कुछ घटा
सब
कुछ बीता
इतनी
तेज़ी से
बिना
कहे अकस्मात.
अधूरा
अपरिचित मिलन
ओह......
वह
भरपूर
बिछोह,
उस
पर अब
मिलना
इस तरह:
भागती
उमर.....
डूबती
शाम -घिरती रात
बिना
कहे अकस्मात.
इन
बेबस काँपते
हाथों
मे रहा नही
ख़ुश
होकर
कुछ
भी-कोई भी
इस
से पहले.
और
आज मिला
-
ये
अनछुआ स्पर्श.
तुम्हारे
हाथ,
तुम्हारी
उंगलियाँ,
सकुचाती
सी
थमी
हुई ठहरी
सुस्ताती
हुई-
मेरे
हाथों मे.
समय
भी हारा
उसी
एक पल
तुमसे..मुझसे.
सच
है कि इस
पल
मैं
जो करना चाहता
हूँ-
करूँगा
नही...
इतना
ही बस-
मिलने
दूँगा अपने
प्रेम
को
उन्ही
हाथों मे.
उन्मुक्त
बहने दूँगा
सोख
लेने को
तुम्हारा
हर कंपन
समा
जाऊँगा वहीं
उस
ठहरे हुए
अद्भुत
पल मे.
ठीक
उसी समय
तुम
मुझे देखोगी
मेरी
आखों मे-
उन्हे
बंद पाओगी.
मैं
वहाँ हूँगा कहाँ?
शायद
तुम्हे भी
कहना
है
ये
जो हो रहा
है
इसका
होना-
मुश्किल
था.
और
मैं ..
मैं
कहना चाहता हूँ
कहूँगा
नहीं-
आसान
तो कुछ भी
नहीं
होता.
प्रेम
तो कभी नही.
-शिशिर सोमवंशी
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