तुमने हर
बार
दिया है-
रक्त के रंग
को
वंश की परंपरा
और संबंधों के
स्वामित्व को.
एक बार प्रेम
को
अवसर देकर देखो.
अपने से बढ़कर
माना है-
स्थितियों की विषमता,
यथार्थ की अनिवार्यता
और निर्जीव किंतु प्रकट
स्थायित्व को
बस एक बार
प्रेम को सबसे
उपर-
रख कर देखो.
एक बार
अपने हृदय की
कारा मे जन्मों
से
बंदी मौन को
भी
स्वर देकर देखो.
एक बार प्रेम
को
अवसर देकर देखो.
प्रेम याचक नही
इस की अपेक्षा-
प्राप्ति, आलिंगन
और सानिध्य नही
प्रेम कहता है-
मुझे स्वीकृति दो
स्वयं मे
संपूर्ण हो जाओ.
इस काया, स्वरूप
और स्पर्श की
सीमाओं से
उबर कर देखो-
एक बार प्रेम
को
अवसर देकर देखो.
ये नही कहता
कि नामों
के
आरंभ के अक्षर
के
युग्म बनो
और जताओ उसको-
इतना कहता है
जब आँखों
मे उमड़ूँ
उसे लिपिबद्ध करो
और फिर उसी
पवित्र
प्रवाह निर्झर मे-
मुक्त निर्बाध
बह कर देखो.
एक बार प्रेम
को
अवसर देकर देखो.
-शिशिर सोमवंशी
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