Monday, December 1, 2014

समय मुझे देना नहीं

लो बीत गया,  
और एक दिन,
बिना देखे तुम्हें,
बिना सुने तुमको.
नया कुछ भी नहीं.
डूबती शाम के,
सायों में, 
पुनः उदास हूँ,
किंतु अपराजित.
विकट जीवट है,
ढीठ है,
मेरा प्रेम,
इसकी जिजीविषा.

अग्नि इसकी,
शीतल होती नही.
मंद पड़ती नही.
कितना बल लगाए,
विरह-शर्वरी  की,
निष्ठुर शीत में,
एकांत के दस्युओं,
की निर्मम दुर्दशा. 

काँपते पत्ते पर,
थमी सहमी,
ओस की अकिंचन,
बूँद का सा-
अपना यह संबंध.
मुझसे नही है,
तुमसे है,
तुम्हारे होने से.
जानता हूँ,
जानकर भी,
बरबस  लगता है.
इसमे ज़रा सा,
मेरा भी है-
तुम्हारे बाद.

साथ-साथ,
न चलने भर से,
छूट जाता,
नही साथ.
चाहे से भी,  
मरती नहीं भावनाए.
तुम्हारे अघोषित,
मौन सी सहसा-
समय लगता है.
मुझे कुछ ना दो,
माँगूंगा नहीं,
बस इतना अनुरोध,
वो समय-
मुझे देना नहीं.


-शिशिर सोमवंशी

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