मे कसमसाता,
मेरा आग्रह
उकता रहा है.
संभव
है,
कोई भूल
हो जाए मुझसे.
जितना रोको,
उद्दंड बच्चे सा,
कमर पर,
हाथ टिकाए.
मेरी आँखों में,
दृष्टि गड़ाए.
बोलता है-
अब मेरी बारी
आनी चाहिए.
अंबर पर विचरते
बादलों पे चलने की.
जब जी करे,
जहाँ मैं चाहूँ,
उनसा पिघल कर
अंतिम बूँद तक
बरस जाने की.
चुकने से पहले,
धारा बनके तुम्हारी
अप्रतिम काया पर
बह जाने की.
गुनगुनी धूप मे
नम वाष्प सा
सूख कर
तुम्हारी सुगंध
समेटे हवा मे
बिखर जाने की.
मुझे भी तो
मिलना चाहिए
मेरा हिस्सा-
धूप का
नमी का.
अपनत्व,
स्नेह और
सानिध्य का.
तुम दोगे?
उसको,
मुझको,
हम दोनों को.
-शिशिर सोमवंशी
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