Saturday, December 13, 2014

क्यूँ तुम्हे याद नहीं?

हर पल दूर होते,
अतीत की
जिस सुनहरी
छाया को,
मैने समेटना चाहा,
तुम्ही थे;
और कोई नहीं.

और कोई होता,
भी कहाँ और कैसे?
किसी की जगह,
ही नही थी.
किसी ज़िंदगी की.
ना इंसान की,
ना ही ख़ुदा की.

मैने कुछ भी,
देखा  नही,
सुना नही.
ना ही धरती का
कोई वजूद था,
ना आसमान का ही,
ना किसी मौसम का.

खूबसूरती रही होगी.
नगर सुंदर था,
लोग कहते हैं,
मुझे नही पता.
ना किसी हवा मे,
इतनी ताक़त थी.
मुझे मोड़ ले,
अपनी तरफ.

हर ओर बस,
तुम ही रहे,
तुम्ही तुम.
तुममे क्या है?
पूछा मुझसे सबने-
दुनिया को जाने,
क्या फ़िक़र थी.
रूठ कर,
बिफर कर,
लताओं ने रार से,
लिपट कर मुझसे.

मुझे खुद होश नही,
तुममे क्या था.
जिसने मुझे,
बाँध लिया.
उन लताओं से,
ज़्यादा कसकर.
मौसमों, बादलों
और हवाओं से,
जो ना हो सका,
तुमसे हुआ.
तुम्हारे साथ
होने पर और,
कौन होता?
जब मैं-
ख़ुद मैं ही
खो गया.

उजाले के जैसे
मुझको सजाते हुए
उभर कर,
संवर कर,
निखर कर.
अपनी अनोखी,
आँखों की,
चमक के साथ.
पता ही नही चला.
कब मैं अतीत 
और तुम,
भविष्य हो गये.

ये भी पता
नही चला कि,
कब तुम्हारे लिए,
सर्वथा साधारण,
महत्वहीन,
घटनाविहीन,
तुम्हारा अतीत,
जो तुम्हे अब,
ज़रा सा भी,
याद नहीं,
मेरी पूँजी,
मेरी नियति,
मेरा वर्तमान,
हो गया.

और मैं-
उन बादलों से,
उन हवाओं से.
उन मौसमों,
और लताओं से.
जिन्हे मैने कभी,
देखा ही नहीं.
सुना नहीं,
समझा और,
महसूस ही,
किया नही.
पूछता हूँ पागल.
सुनो तुम्हे तो,
याद होगा?
उसे तो कुछ भी
याद नहीं.
शिशिर सोमवंशी

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