वो भी तुम्ही हो/
ग्रीष्म की/
तप्त दोपहर/
जो बीतते बीतते/
देर तक ठहरी/
बिना आमंत्रण अनायास/
चुपके से चली आई/
और शीतल कर गयी/
वो सांझ-
तुम्ही हो.
चमक कर/
फैली हुई/ये धूप/
तुम्ही हो/
झिझक कर/
सिमट गयी/
थी जो रात.
तुम्ही हो/
हर रंग/
हर घटना/हर मौसम;
मेरा बसंत भी/
शिशिर भी/
मेरी भटकन/
मेरी मुक्ति;
अतीत, व्यतीत/
और वर्तमान/
मुझमे घुला/
सब रस/
मुझसे बँधी/ हर बात.
तुम्ही सब कुछ हो-
मैं तो बस/
वो समय हूँ;
जो तुम्हे छू कर
यूँ ही निकल गया;
क्यूँ कहते हो कि-
मैं बदल गया.
शिशिर सोमवंशी
No comments:
Post a Comment