आँखें खुलने पर
बाहर का प्रकाश
अपरिचित प्रतीत हो,
अंतस का अंधकार
अपना साथी-
खिड़की पर
पर्दे खींच कर
पलायन न
करते हुए,
विप्लवी हो
स्वयं से निर्मम
विरोध छेड़ देना।
द्वार खोल कर
उसी चुभते हुए
प्रकाश में
निकल पड़ना,
मन और भाव से
दिगंबर हो
अनावृत्त व
पूर्णत: असुरक्षित,
सत्य की तीव्र
आँच को सेंकने।
देखना अपनी
कल्पित काया से
नैराश्य का मैल
पिघल कर
बहता हुआ,
कुंठाओं का कलुष
सूखे तृणों सा
जल कर आहुति
देता हुआ।
जीवन
स्मित हो
कह
उठेगा-
तुम वही
हो
जो तुम
होना
चाहते हो,
वह भी
तुम्हीं ,
जो तुम
चाह कर
नहीं हो
पाते,
और वह
भी
जो तुम
हो रहे
हो
अब धीरे
धीरे ।
तुम अपने हृदय,
अपने विचारों और
स्वर्णिम स्वप्नों के,
सबल सेनापति हो,
वृद्ध सम्राट नहीं
कि तुम्हारा युद्ध
भाड़े के पोषित
सिपाही लड़ें।
स्वयं को
स्वयं से विजित करो-
हर नयी सुबह
स्वयं के लिए।
शिशिर सोमवंशी
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